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________________ विवेकहर्षकृत हीरविजयसूरि (निर्वाण) रास २७५ करइं प्रतिष्ठा हीरजी, मेघ खरचईं रे (२) द्रव्य लाख, तुं. अपर श्रावक जे खरचीआ, द्रव्य कहिवा रे (२) किम सकि मुझ भाख, तुं०७६ मका इंतु फरि आविउ, आरहिडिउ रे (२) आजमखांन, तुं० । प्रथम नमईं हीर-पाउले, आव्यउ रे (२) उंना गाम, तुं०७७ खांन भणईं गुरूजी! सुणउ, अब मईं जाणिउ रे (२) अकबरसाहि, तुं० वीर ज्ञानी वड वीर तुं, जिणिं पिछाण्यो रे (२) दुनिआंमईं तुं बडा फकीर, तुं० ७८ पेसकसी गुरू आगलिं, खांन ढोवई रे (२) महुर के हजार, तुं० सुगुरू कहइं अह्म मनि कांकरा, बंद छोड्यो रे (२) इणि द्रव्य अपार, तुं० ७९ भणसाली अबजी भलो, गुरू वंदइ रे (२) जाम राजा जोडी, तुं० महुर अढारसईं अंगनी, करईं पूजा रे (२) खरचईं द्रव्य कोडि, तुं० ८० हिंसक म्लेछ महाहठी, अति मोटईं रे (२) मुंहुमदखांन के, तुं० ते प्रतिबोध्यउ हीरजी, खांन मानई रे (२) लाडकी बहिन समांनि, तुं० ८१ दुहो गुरू दर्शननईं अलज्यो, गुजरधरनो संघ, विनती वलीवली मोकईं प्रभु, पूरो अह्म मनि रंग. ८२ राग माल. प्रभु! गुजरधर नीकी चिंत करी, आयो आयो नि लटक लटक फरी. प्रभु ! तम-सुं जो दिल कठिन करई, तउ निज सेवक मनु कियुज तरइं, बलिहारि जाउं बलिहारि रे. ८३ तुम्ह देखनकुं मन मोही रहे, जिउं अंतरताप न जाइं किटे, टुक देखुं नईं युं जल थइ विछुरी, रही क्युं बस कईं थलमईं मिछुरी. बलि० ८४ तसबी तम्ह लाभ बहु लहईं, तेणईं तह्म 'जगगुरू' बिरूद कहईं, अब क्या तो तम्ह उंहां मोह रहे, तुम्हकुं नहीं रहणा एकु ग्रहई. बलि० ८५ परपीडनके भंजन हीरजी हो, सुणी बीनती कहा इसई च्युप रहो, निगुणे फनि बलत च्यारियुं, निज दास टुक भी चीतारिईयु. बलि० ८६ हमसे प्रभु मूढ सदामुं नहीं, तो भी प्यार धरउ साहिब तुमही, अब आउ-न आदि निहोरू करू, टुक मानहु बीनती पाउं परूं. बलि० ८७ ईतनु कहा जोर गरीब परिं, तेरि बाट देखत हई लोग खरे, अब गुजरदेश पधारिईयु, मुनि विवेकहर्ष बंधारिईंयु. बलि० ८८ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002640
Book TitlePrachin Madhyakalin Sahitya Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayant Kothari
PublisherL D Indology Ahmedabad
Publication Year2001
Total Pages762
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size11 MB
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