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________________ ३० वस्तिगकृत वीश विहरमान जिन रास (रच्या विक्रम संवत् १३६८ माघ शुद ५ शुक्रवार.) [कवि लोटागण एटलेके लोढागोत्रना अने रत्नप्रभना अनुयायी शिष्य श्रावक जणाय छे. जुओ जैन गूर्जर कविओ भा.१, पृ.१८-२० तथा गुजराती साहित्यकोश खं.१, पृ.३९६-९७. 'गुजराती साहित्यकोशे' एमने जैन साधु कह्या छे ए भूल छे. ला. द. भारतीय संस्कृति विद्यामंदिरनी हस्तप्रत क्र.१६७५७ना आधारे आ कृतिनी पाठशुद्धि करी छे. – संपा.] विहरमान तित्थयर पायकमल नमेविय, केवलधर दुन्नि कोडि सवि साधु नमेविअ, जिण चउवीसइ पाय नमेसु, गुरूयां सहिगुरू भत्ति करेसु, समरिय सामिणि सारद देवि, पढिसिउं जिण वीसइ संखेवि. १ संवत तेर अठसठई माह मसवाडइ, पांचमि हुइ शुक्रवारिइं पहिलई पखवाडई. तर आरंभिअ अभिनव रासो, जिम हुइ जामणमरणविणासो, मुझ मुरख नवि बोलवा ठाउ, पुण गुरूयां श्री संघ पसाउ. २ मझ मनि ऊपनउ भाउ, हउं अज्ञान होउं, सहिगुरू तणउ पसाय ए प्रभाव होई. आगम माहि एह कहीउ सारो, ए नर कर्मभूमि तणउ विचारो, संखेपिईं लव एक कहीजईं, पसाउ करी भविआ निसुणीजइ. ३ अढइ दीप मझारि कर्मभूमि भणीजइ, जोअण लख पंचतालीस विस्तार जाणीजइ. तेह विचि जंबूदीप भणीजइ, जोअण लाख एक निसुणीजइ, लवणसमुद्र छइ विलयाकारे, दुन्नि लाख जोअण विस्तारे. ४ पाखलि धातकीखंड लख च्यारि जाणीजइ, कालोदधि समुद्र लख आट भणीजइ. पुख्खर वर दीव अर्द्धउ होई, आठ लाख जोअण हुइ सोइ. ए जोअण देवकां भणीजई, एक जोअण सईं च्यारि जाणीजइं. ५ साढ बावीस लाख पूरव दिसि भागे, एणि परि थाकतउ अर्द्ध पाछिम दिसि लागे, ते विचि गुरूउ मेरू भणीजइ, ऊंचउ लाख जोअण सुणीजइ, पूरव पश्चिम दिसि बेइ जोए, दुन्नि दुन्नि मेरू पाखलि होई. ६ मेरू मेरू त्रिणि क्षेत्र पंच भरत भणीजइ, ऐरावत पंच पंच महाविदेह जाणीजइ. क्षेत्रि क्षेत्रि विजया बत्रीस, पंच क्षेत्रि विहरईं जिन वीस, सूसमकाल विशेषिइं जोअ, विजय विजय तित्थंकर होइ. ७ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002640
Book TitlePrachin Madhyakalin Sahitya Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayant Kothari
PublisherL D Indology Ahmedabad
Publication Year2001
Total Pages762
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size11 MB
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