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________________ प्राचीन जैन कविओनां वसंतवर्णन [आ कृति 'प्राचीन - मध्यकालीन बारमासा संग्रह' (संपा. शिवलाल जेसलपुरा ) मां छपायेली छे. अहीं पाठशुद्धिमां एनो लाभ लीधो छे. संपा. ] Jain Education International - देशी माहिइ अति ऊमाहीआ, रहिइ मन मांहि झूरि रे. वैद्य जे विरहवेदन तणउ, ते वाल्हेसर दूरि रे. मा० ऊमाहीआ मन मांही रहीइ, जेम पंखी पांजरइ, देसाउरी सो सजन मेरा, सास पहिला सांभरे, सखी, सोइ सुंदर अवर अंतर रयणरेड नइ काकरा, स पीआरडु पीउ कही मिलसि, हसत मुख गुण - आगरा. ३५ दूहा जाणुं सो कब वीसरे, छूटइ नेहके बंदि, जिहां जोउं तिहां सामुहो, वाल्हा तुज मुखचंद. ३६ मुझ मनि निसिदिन तुम्हे वसो, तुम्ह मन कल्युं न जाय, तुम्हा विणदीठइ सुख नहीं, घडी जमवारो थाय ३७ निसि मोटी, निद्रा नहीं, पांगरी यौवनपालि, वाहालो विदेसी, विरह रे, जिम चाले तिम सालि. ३८ देशी फागुणे केसू कुंपल्या, दावानल वीछड्याइ रे, केस्यू रंग विना विरही कां दैवे घड्याइ रे. फा० कुंपल्या केसू लाल वेसू, कपुर केसर छांटणां, गुलालि राती छांटि [ छींटि] माती, उपरि आछां ओढणां, ए जोडि मदमति हसति खेलति देखतिइ दुख संभरे, पीउ विना कहे - स्युं वसंत खेलुं ? छांटणां पचरकी भरे. ३९ दुहा फागुण होली सहु करे, वीछड्या हि बार मास, सजन ! छोडावो विरहथी, जो अम्ह जीवित - आस. ४० प्रीति प्रीति सहु को कहे, अम्हे तु जाणउ वइर, दाझी दाझी ते मरे, चइ अंगारा खइर. ४१ लोहि रे घड्यु रे हीआ, कइ घडीओ वयरेण, नेहि धीक्यु फाटो नही, वालिंभ-विरह-घणेण. ४२ For Private & Personal Use Only ११७ www.jainelibrary.org
SR No.002640
Book TitlePrachin Madhyakalin Sahitya Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayant Kothari
PublisherL D Indology Ahmedabad
Publication Year2001
Total Pages762
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size11 MB
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