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छूटां सुभाषित
६११ (पत्र १, खंडित प्रत, मारी पासे)
[क्र.१थी ४ : जैनयुग, भाद्रपद सं.१९८५थी कारतक १९८६, पृ.५८-६०]
प्रास्ताविक दूहा चंदन रूए रोसभर, माहरो सगो न कोय, ज्याकुं राखू पेटमें, सो फिरकर वेरी होय. १दव जलें तरूअर बलें, पंखी बेठे डाल, हम जले सो पंखि बिन, तुम जलो सो कयाह. २
उत्तर पान वगारें फल चुगें, बेठी तोरी डाल, हम उड जावेगे तुम जलोगे, जीवेंगे केतो काल. ३ सगुरू वेरी वल्लहा, हीयडे खटकें तीन, वीसार्यां नवि वीसरें, वसतां उमर सीन. ४ जो नर एरणकी चोरी करे, दे सुइको दान, उंचा चड कर देखतें, मुजकू नहि आवत हे विमान. ५ रे प्रांणी, सुंणि बापडा, जिम नारीनुं ध्यान, तिम कर परमेश्वर तणुं, लाभे स्वर्गविमान. ६ समतारस छे सीयलो, टालें . भवनो ताप, सुध धर्म कह्यो ते सेवज्यो, जिम टलें सवी संताप. ७ चिंता-थें चतुराइ घटे, घटें गीत गुण गाह, रूप रंग विद्या घटें, चिंता समुद्र अथाह. ८ कबीरा, जग अंधा भया, जेसी अंधी गाय, बछडा था सो मर गया, उभी चर्म चढाय. ९ कबीरा कल्ल करता सो अज करे, अज करता सो अब, जब आवेंगी नींद्रडी, तब पड रहेगा सब. १० हे मन, तूं एतो भमें, जेतो नभमें पंख, मनको राख्यो मन रहें, वरजी न रहें अंख. ११ इंण मांहें परीमल नहीं, मधुकर देखि म भूल, झूठी लालच क्या करे, ए किंशुके फूल. १२
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