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________________ यशोविजयगणिकृत १०८/१०१ बोल ४७१ लख्यु छे, ते न घटे; जे माटे यथाच्छंदने पण सूत्रोच्छेदनो परिणाम होय; अने तीर्थोच्छेदनी परे सूत्रोच्छेद पण योगवीसी प्रमुख ग्रन्थमां भारे कह्यो छे. २ 'नियत उत्सूत्र भाखे ते निह्नव, अनियत उत्सूत्र बोले ते यथाच्छंद' एबुं लख्यु छे तिहां उत्सूत्रकंदकुद्दाल विना बीजी कांइ साक्षी नथी. ३ 'यथाच्छंदने उत्स्त्र बोल्यानो निर्धार नथी' एवं लख्युं छे ते न मले, जे माटे आवश्यकव्यवहारभाष्यादिक ग्रंथमां यथाच्छंद उत्सूत्रचारीने उत्सूत्रभाषी ज कह्यो छे. ४ ___'नियत उत्सूत्रथी अनियत उत्सूत्र हलवू ज होय' एवं कहें छे ते न घटे, जे माटे एक जातिने पापे हिंसादिक आश्रवनी परे नियतानियतभेदे फेर कह्यो नथी. ५ कीधा पापर्नु प्रायश्चित ते ज भवे आवे पण भवान्तरे न आवे' एवं लख्युं छे ते न घटे, जे माटे पंचसूत्रचतु:शरणादि ग्रंथने अनुसारे भवान्तरना पापर्नु पण प्रायश्चित्त जणाय छे. ६ ___ 'अभव्यने अनाभोगरूप एक ज अव्यक्तमिथ्यात्व होय [गुणठाणुं न कहीए]' एवं व्याख्यानविधिशतकमां लख्यं छे ते अयुक्त छ, जे माटे गुणस्थानक्रमारोहादिक ग्रन्थे अभव्यने व्यक्ताव्यक्त बे प्रकारे मिथ्यात्व कह्यो छे. ७ वळी त्यां एवं लख्यु छ जे 'एक पुद्गळ परावर्त संसार शेष जेने होय तेने ज व्यक्तमिथ्यात्व कहीए' ते सर्वथा न घटे, जे माटे तेथी अधिक संसारी पण पाखंडी व्यक्तमिथ्यात्वी ज कह्या छे. [अने व्यक्तमिथ्यात्व ते गुणठाणुं छे.] ८ 'अनाभोगमिथ्यात्वे वर्तता जीवने, न मार्गगामी वा उन्मार्गगामी कहीए' एवी कल्पना करी छे ते कोई ग्रंथमां नथी, अने एम कहेतां सघळे त्रण राशि कल्पाय. ९ 'अभव्य अव्यवहारीआ' कह्या छे ते उपदेशपदादिक ग्रंथ साथे तथा लोकव्यवहार साथे पण न मळे. १० _ 'व्यवहारीआ जीव सर्व आवलिकाना असंख्येयभागसमयप्रमाण पुद्गलपरावर्त पछी अवश्य मोक्षे जाय' एवं लख्यु छे त्यां कोइ ग्रंथनी साक्षी नथी, सामु भुवनभानुकेवळिचरित्र, योगबिंदु प्रमुख ग्रंथनी मेळे व्यवहारीआ थया पछी अनंत पुद्गलपरावर्त्त पण दीसे छे. ११ 'सूक्ष्म पृथिव्यादिक ४ तथा निगोद २, ए छ भेद अव्यवहारीआ कहीए' एवं लख्युं छे ते न घटे, जे माटे उपमितिभवप्रपंचा नय[सनय/समय]सारसूत्रवृत्ति, भवभावनावृत्ति, श्रावकदिनकृत्यवृत्ति, पुष्पमाळावृत्ति, धर्मरत्नप्रकरणवृत्ति, संस्कृतनवतत्वसूत्रादिक ग्रंथनी मेळे प्रगट ज बादरनिगोदादिक व्यवहारीआ जणाय छे, एक सूक्ष्म निगोद ज अव्यवहारीआ कह्या छे. १२ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002640
Book TitlePrachin Madhyakalin Sahitya Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayant Kothari
PublisherL D Indology Ahmedabad
Publication Year2001
Total Pages762
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size11 MB
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