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________________ ४७० यशोविजयगणिकृत १०८/१०१ बोल (आ बोल धर्मसागरकृत 'सर्वज्ञशतक' नामना ग्रंथमां जे अप्रमाण अथवा अस्पष्ट श्रीमद् यशोविजयजीने लाग्युं ते स्पष्टपणे दर्शाववा लख्या छे एवं जणाय छे. आनी हस्तलिखित प्रत एक ग्रेज्युएट तरफथी मळी हती तेथी तेनो उपकार मानीए छीए.) [आ ज प्रतने आधारे यशोदेवसूरिए करेलु संपादन १०८ बोलसंग्रह आदि पंचग्रन्थी' (१९८०)मां छपायेलुं छे, पण एमने प्रतनुं पहेलुं पार्नु मळ्यु नथी एटले कृतिनो आरंभ खंडित छे. यशोदेवसूरिनो पाठ श्री देशाईनी केटलीक सरतचूको सुधारवामां काम आव्यो छे, जोके सामे यशोदेवसूरिना पाठमां पण कोईक सरतचूक नजरे चडी छे. कांनी स्वलिखित प्रतने आधारे मुनि शीलचंद्रविजये करेलुं संपादन 'अनुसंधान ७' (१९९६)मां छपायेल छे. एनो लाभ अहीं शुद्धिवृद्धिमा लीधो छे, जोके स्वलिखित प्रतना कोईक पाठ पण भ्रष्ट के शंकास्पद होय एवं जणाय छे. कोईक छापभूल पण हशे. स्पष्टपणे भ्रष्ट पाठ (के छापभूल) लाग्या तेनी नोंध लीधी नथी, पण विकल्पात्मक स्थिति लागी त्यां पाठांतर रूपे नोंध लीधी छे. कृतिने अंते १०८ बोल होवानुं दर्शाववामां आव्युं छे, पण वस्तुत: १०१ बोल छे. ए स्पष्ट छे के देशाईए अर्वाचीन भाषारूप करी नाख्युं छे – ‘घटइ'ने स्थाने 'घटे' वगेरे. जवल्ले ज अर्वाचीन पर्यायशब्द पण मूकेल छे. आवा स्वल्प फेरफारो पछी पण भाषा मध्यकालीन ज रहे छे. त. नयविजयशि. प्रसिद्ध न्यायाचार्य उपाध्याय यशोविजय सं.१७मी सदी उत्तरार्ध - सं.१८मी सदी पूर्वार्धमां थई गया. एमनी संख्याबंध कृतिओ संस्कृत, प्राकृत, गुजरातीमां मळे छे. जुओ जैन गूर्जर कविओ भा.४, पृ.१९३-२३४ तथा गुजराती साहित्यकोश खं.१, पृ.३३२-३३. आ कृति ए बन्नेमां नोंधायेली नथी. - संपा.] सर्वज्ञशतकादिक ग्रन्थ मांहेना विरुद्ध बोल जे धर्मपरीक्षा ग्रन्थ मांहे देखाड्या छे ते मांहेना केटलाक मतभेद जाणवाने अर्थे लखीए छीए. _ 'उत्सूत्रभाषीने अनन्तो ज संसार होय' एवं लख्यु छे ते न घटे; जे माटे महानिशीथादिक ग्रन्थने विषे अध्यवसायविशेषनी अपेक्षाए तीर्थंकरनी महा अशातनाना करनारने संख्यातादिक त्रण भेदे संसार कह्यो छे; तथा मरीचि प्रमुख उत्सूत्रभाषीने असंख्यातादिक संसार पण शास्त्रे छे. १ 'निह्नव तीर्थोच्छेदनी बुद्धिथी उत्सूत्र भाखे ते माटे तेने अनंतो ज संसार होय; यथाच्छंद ते रीते उत्सूत्र न भाखे ते माटे तेहने अनन्त संसारनो नियम न होय' एवं Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002640
Book TitlePrachin Madhyakalin Sahitya Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayant Kothari
PublisherL D Indology Ahmedabad
Publication Year2001
Total Pages762
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size11 MB
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