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________________ १४ तेजविजयकृत केशरियाजीनो रास (कवि हीरविजयसूरि - तेमना विवेकविजय अने शुभविजय - तेमना रूपविजय - कृष्णविजय - रंगविजय - भीमविजय - हेमविजयना शिष्य छे. तेमणे सं.१८७०मां आ रास मारवाडीमिश्रित गुजराती भाषामां रच्यो छे. मुनि संपतविजये घणां वर्ष पहेला एमना शिष्य पासे आनी नकल करावी मोकली हती तेनो उपयोग अहीं कर्यो छे. आनी अन्य प्रतोनी माहिती अमारा 'जैन गूर्जर कथाओ' भाग त्रीजामां आवशे. ____ आ रास काव्यनी दृष्टिए उपयोगी नथी, परंतु श्री केशरियाजी तीर्थ संबंधे केटलीक वातो अत्यारे बहार आवी छे ते प्रसंगे आ रासनी उपयोगिता जणाशे.) [अहीं पाटण हेमचंद्राचार्य जैन ज्ञानमंदिरनी प्रत क्र.११५३० मेळवी आ कृतिना पाठनी शुद्धिवृद्धि करवामां आवी छे. एमां मळती वधारानी पंक्तिओ चोरस कौंसमां मूकी छे, एनी मददथी (तेमज स्वतंत्र रीते पण) केटलीक पाठशुद्धि करी छे अने बन्ने प्रतनां आवश्यक जणायां ते पाठांतरो पादटीपमां दर्शाव्यां छे. (क : देसाई; ख : पाटण) स्पष्टत: भ्रष्ट पाठो दर्शाव्या नथी. आ बीजी प्रतना उपयोगथी केटलीक हकीकतो चोख्खी बने छ : (१) श्री देशाईए जे गुरुपरंपरा आपी छे तेमां भावविजय अने सिद्धिविजय ए नामो छूटी गयां छे, ते उपरांत आ बीजी प्रत 'विवेक'ने बदले 'वाचक' पाठ आपे छे ने अन्यत्र आ गुरुपरंपरा मळे छे त्यां विवेकविजय नथी (जुओ जैन गुर्जर कविओ, बीजी आवृत्ति, भा.६ पृ.४१-४४, ४६). तेथी कविनी खरी गुरुपरंपरा आम थाय छे : हीरविजयसूरि - शूभविजय - भावविजय - सिद्धिविजय - रूपविजय - कृष्णविजय – रंगविजय - भीमविजय - हेमविजय - तेजविजय. जैन गूर्जर कविओ, भा.६, पृ.२९६ पर आ कर्ता - कृतिनी नोंध छे त्यां पण गुरुपरंपरा सुधारवानी रहे. (२) उपर श्री देशाईए कृतिनी र.सं.१८७० कहेल छे. परंतु 'जैन गूर्जर कविओ' (भा.६, पृ.२९६) तथा ‘गुजराती साहित्यकोश' (खं.१, पृ.१५८)मा र.सं.१८७७ दर्शावायेल छे. श्री देसाईए आपेल कृतिना पाठमां ‘सत्योतरा' शब्द छे ते १८७७ बतावे. परंतु एनी पूर्वे छेल्ली ढाळमां 'संवत वसु चंद्र सुन्य सैल' एम आवे छे तेनुं अर्थघटन १८०७, १८०८, १८७०, १८८० एम थई शके, १८७७ नहीं. हवे बीजी प्रतमां 'सीतेरा' पाठ मळे छे तेथी र.सं.१८७० निश्चित थाय छे. उपरांत, बीजी प्रतमां बीजी ढाळमां वधारानी पंक्ति मळे छे तेमां काव्यगत घटना १८६३मां बनी होवानो निर्देश छे. कृतिनी रचना ते पछी ज होई शके. तेजविजयना वाचनार्थे सं.१८४४मां लखायेली प्रतनी (जैन गूर्जर कविओ, भा.६, पृ.५७२) अने तेजविजये सं.१८७३मां लखेली पत्रनी (जैन गूर्जर कविओ, भा.६, पृ.१३३ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002640
Book TitlePrachin Madhyakalin Sahitya Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayant Kothari
PublisherL D Indology Ahmedabad
Publication Year2001
Total Pages762
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size11 MB
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