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प्राचीन मध्यकालीन साहित्यसंग्रह एम सम्यक्त्वी जीव चिंतवे. कोई कार्य नहीं, सर्वथा प्रकार परवस्तु परपर्यायसंघाते निश्चयथी सदा - सर्वदा त्रिकाल विषे सम्यग्द्रष्टिए एम जाणवं. चैतन्यात्माचं जे अनुप रूप तेज निज धन निधान - निधिरूप अक्षय भंडार, ते ओळखी - जाणी तेहथी सहजोत्पन्न आत्मीय अद्वितीय रूप सुख मानीये. हवे परसंयोग बाह्यरूष देखाडे छे. पिता पुत्र भाइ सकल समस्त ‘परियण' कहेतां परिजन - परिवार - सर्व संबंधीसगां ए सर्वे केवा छे ? पंखीना मेळा समान छे. वळी केवा छे ? पेखणा समा. सा रूप पेखj छे, अथवा पथिक संगीरूप पेखणा कहेतां देखणा जाणवा.
सम कहेतां सम्यग्ज्ञान-दर्शन-चारित्रादिक जे आत्मगुण अनादि सहभूत संघाती जे जे गुण ते सहित रहे छे जीव सुलक्षणवंत.
ए पहेली अनित्यभावना कही. ते अनित्य भावनाए पर्यायोगपयोग थयो. पर्यायोपयोग थातां तत्पूर्वक द्रव्य ते जाण्यु. ए बे जाणतां नित्यानित्यपणुं जाण्युं. नित्यपणुं जाणतां अशरणपणुं जाण्यु. ते माटे बीजी भावनाए अशरणपणुं भावे छे.
अशरण वस्तु शुद्धात्मवस्तु शुद्धात्मद्रव्य शुद्धनिश्चय मया उक्त. तिहां स्वभाव परिणति शक्ति पामी शुद्ध सत्ता स्वरूपे परिणमन समये अपर द्रव्य कोइ शरण – सहाय नथी एटले परद्रव्य परगुण परपर्यायावलंबन ए सर्व व्यवहारनये छे. निश्चयनय अपेक्षाए आपआपणी शक्तिना षटषटे (छ-छए) द्रव्य ‘सर्वविलासी' – भोगी छे. ते शक्ति कोण द्रव्यत्व गुणत्व पर्यायादि तेहना विलासी जोई - देखी, एटले परद्रव्य-स्युं कार्यकारण विशेष ते उपचरित व्यवहारनय छे, तेनो निश्चय.
जे बहिरात्मा देहादि विणास्ये आपणो विणास - मरण जाणे छे ते मूढ जीव देहादि वियोगथी कायर थाए छे. ते मूढ मोहें व्यापे छे अने ते मोह व्यापी छे; एटले मोहे ते, ते तेने मोहे - एम परस्पर व्यापकपणुं छे. शरणपणे ते ज सोचे छे, पण जे अंतरात्मपणे परिणम्या छे ते शरण कोईनो नथी जोता अने ते सम्यकत्वी द्रव्यभावनिद्राए अल्प सूए छे, अने वचन पण 'कीजे प्रीत' - स्नेहममत्वादिक. वळी संसारभाव शुं ते कहीए. अहं सुखी-दु:खी, धनी-निर्धन, पंडित-मूर्ख, राजा-रंक इत्यादि आत्माने मानीए ते संसारभाव कहीए. ए सर्व शुभोदयवशात् मनोज्ञ पुद्गलद्रव्यनी रीति देखीने पोतापणुं मान्यु ए संसारभाव; एटले द्रव्यकर्मजनित व्यवहार शुभाशुभ क्रिया ए ज भावकर्मना कारण, अने विभावजनित अनेक विकल्प - अध्यवसाय ते ज द्रव्यकर्मना कारण - इम माहोमांहि कार्यकारणनी संकलना जाणवी. इम इष्टानिष्ट संयोग-वियोगादि पुद्गलद्रव्यनी रीति देखी एह ज भावकर्मोत्पत्ति कारण पामी सुख-दु:खादि व्यवस्था आप विषे मानी. वळी संसारभाव ए कही, जे चार गति चोराशी लाख जीवायोनिमाहि
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