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________________ अल्लुकृत बार भावना नये वस्तुविचार जाणवो. संसारमांहि स्कंधादिकनां जे रूप देखीए छीए ते सर्व पुद्गलद्रव्यना विभागपर्याय जाणवा अने एह ज पुद्गलपर्याय औदारिक, वैक्रिय, आहारक, मनोवाक्कायादि वर्गणारूप स्कंध ते आत्मप्रदेशे एकक्षेत्रावगाहनयोगे वाश्या आत्मपणे मानी स्वप्रदेशे परिणमाव्या ए अशुद्धचेतना. ते चेतनाना विभावपर्याय. वली तेह ज नित्यानित्यपणुं द्रव्यपर्याय आदि भेदे कहे छे. १ अहो जीव ! शुद्धसत्तावंत, स्वभावसुलक्षणवंत, रत्नत्रय अनंतचतुष्टय आदि स्वलक्षणवंत ! 'तुं आज मुझनें प्रतिभासिओ' एटले में आज समय लब्धियोगें सम्यक्त्वनी उत्पत्ति समये जाण्युं; अने आ इंद्रिययोगप्रत्यक्ष जे परपरिणति पर्यायरूप परिग्रह, ते अहो जीव ! परद्रव्य पर्याय जाणजे. ते औदारिक आदि देह पुद्गलरूप परद्रव्य पर्यायनी मांहे कोइ सत्य बोले ते शुं जाणीने ? ते कहे छे. 'पहिचानी' कहेतां ओळखी – जाणी - देखीने. शुं देखी? कृतकर्मपरिणतिनो भेद; आत्मा-स्युं आत्माथी न्यारो शुद्धात्मद्रव्योपयोगरूप वेदनज्ञानसूर्यनो प्रकाश उदय करे छे. वली ते अंतरात्मा संसार मांहि रहे छे. ते केम रहे छे ? ते दृष्टांत देखाडे छे. जेम धाइ - माता स्व- पर संतान पाळे छे स्व- पर संतानंनी भेदबुद्धि छे अने बाह्य वृत्ति सरखुं जल्पन लालीपाली सुश्रूषा - स्नान - विलेपनादि करे छे, परं अंतरगति हेत आपार बुद्धिम अध्यवसाय विषे सामान्य - विशेष स्निग्ध- रूक्ष परिणाम पर्याय विषे संख्यात असंख्यात हा वृद्धि जाणवी, तद्वत् जीवतव्यने संबंधे देह पोषी, पण भिन्नपणानी बुद्धि माटे, मरणनो भय तेहने ते अपर बाळकनो नथी, त्यम सम्यक्त्वी जीव अ (ए) क संबंधे शरीर पाले. परं अंतर भिन्न. २ - Jain Education International - - ५४३ For Private & Personal Use Only - हवे नित्य अशरण ए बे उपयोग थया त्यारे द्रव्यकर्मफलचेतना, भावकर्मफलचेतना रूपे द्रव्यसंसार, भावसंसार ए जाण्या त्यारे संसारभावना उपजी ते माटे त्रीजी संसारभावना भावे छे : संसाररूप कोई वस्तु पदार्थ नथी. ए 'भेदभाव' कहेतां नर-नारकादिक, स्वामीसेवक, जन्ममरण, सुखदुःखादि सर्व भेदो अज्ञान मांहि छे. परं अहो जीव ! सम्यग्ज्ञानद्रष्टि 'देखी' जोय - विचार शुद्धनयार्थ द्रष्टिए जोतां सर्वे जीव चतुर्दश भेदे चतुर्दश रज्ज्चात्मवर्ती सिद्धा. सिद्ध - सर्व सिद्ध समान छे. ३ छंद : शिष्य संदेह टाळवाने संसारस्वरूपनी मूलोत्पत्ति कहे छे. संसारभावे संसारोत्पत्ति जाणवी. ते संसारभाव शुं ? ते कहे छे. ए संसारभाव निश्चये-शुं ते कहीए, जे बाह्याभ्यंतर द्रव्यकर्म, भावकर्म, नोकर्मादि परपरिणति कार्य प्रयोजन नहीं www.jainelibrary.org
SR No.002640
Book TitlePrachin Madhyakalin Sahitya Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayant Kothari
PublisherL D Indology Ahmedabad
Publication Year2001
Total Pages762
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size11 MB
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