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________________ ५४२ प्राचीन मध्यकालीन साहित्यसंग्रह गुणसत्ताके जानतें, सांत भइ चिहुं ओर, विन जानें ऐसी हुंती, जिति तिति लागत सोर. (४) ३५ सोर गयो चिहुं ओरकों, वीती तिसा अयाण, निज सत्ताके जाणिवें, निर्मल दृष्टि विहांन. (५) ३६ करम सुभासुभ उदय गति, समें समें रसलीण, साखीभूत थित्या थकां, देखई ग्यानप्रवीन. (६) ३७ अकथ कहानी ग्यानकी, कहन सुनन की नाहि, आपहि आपें पाइए, जब देई घट मांहि. (७) ३८ - इति श्री अल्लकृत १२ भावना समाप्ता. संवत १८०० वर्षे शाके १६६५ प्रवर्त्तमाने पोस शुदि ११ दिने सकलपंडित शिरोमणि पंडित श्री विनीतविजयगणि तच्चरणसेवक देवविजयेन लिपीचक्रे श्री सूर्यपुरमहाबंदिरे श्री सुरतमंडण पार्थजिनप्रसादात्. मुनि कर्मसिंहकृत बालावबोध ९०. श्री परमगुरवे नमः. नमः श्रीवर्धमानाय पार्श्वचंद्रं च सद्गुरून्, अल्लुकृतभावनायां टबार्थो लिख्यते मया. १ यद्यपि सुगमसुदेशीभाषामर्थं च लम्यते प्रगट स्तदपि हि मंदमति स्यात् मत्सदृशः कोऽपितस्यार्थे. २ श्री वीतराग देवने नमस्कार करीने अथ कहेतां हवे अवधु कहीए आत्मा, तेहनी कीर्ति कहेतां गुण- कहेवू, एटले आत्माना गुण, अवदात, वृत्तांत, भावनासंबंध लखीए छीए. भावना विना आत्मवृत्तांत संबंध गुणप्रबंध न पामीए, अने भावना विचारतत्त्व चिंतवनाध्यवसाय, शुभ लेश्या परिणाम शुद्धोपयोगें जीवाजीवास्तव संवर निर्जरा बंध मोक्षादि तत्त्वपदार्थ तथा द्रव्य गुण पर्याय स्वपर समयादि अनेक भेद पामीए; ते माटे १२ भेदे भावना लखीए छीए ए संबंध. तत्र पहेली अनित्य भावना भावे छे. अनित्य भावनाए नित्यानित्यपणुं जाणीए. नित्यानित्यपणुं जाणतां षद्रव्यने विषे द्रव्य अने पर्याय ए बे नय जाणीए. तिहां द्रव्य विषे नित्यपणुं, पर्याय विषे अनित्यपणुं - ए बे उपयोग थया. ध्रुव कहेतां शाश्वत नित्यपणुं, वस्तु कहीए पदार्थ - बहु द्रव्य विषे, निश्चल - अचल - निजनिजरूपें अच्युतपणुं छे; सदा कहेतां अतीत, अनागत अने वर्तमान विषे, अध्रुव कहेता पदार्थ तेहनां परजाव कहीए पर्याय. एटले द्रव्यार्थ पर्यायार्थिक Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002640
Book TitlePrachin Madhyakalin Sahitya Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayant Kothari
PublisherL D Indology Ahmedabad
Publication Year2001
Total Pages762
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size11 MB
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