SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 556
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ अल्लुकृत बार भावना ५४१ दुहा दान करो पूजा करो, जप तप करो दिन राति, इक जाणण वस्तु जु वीसरी, ईण करणी मदमाती. २८ धर्म जु वस्तु-सुहाव है, जो पहिचानें कोई, ताहि अवर क्यों पूछीए, सहजें उपजें सोई. (११) २९ छंद धर्म जु निर्मला हो, जाणहु वस्तुसुहाव, अप्पई धम्मिया हो, धर्म ही अप्पसभाव; अपणे सभावेंध जांणो, जाणि धर्मी अप्पहुं, संकल्प विकल्प दूरि करि कें, यहई निज करि थप्पहुं, विवेक व्रत नित हित धरि, कंतिह सहित सोभित सब कला, अनादि वस्तु सुहाएं सो, जानि जु निर्मला. (११) ३० १२. दुर्लभत्व भावना सोरठी दुर्लभ परको भाव, ताकी प्रापति दुल्लही, जो अप्प-सुभाव, सो क्युं दुर्लभ जानियें. (१२) ३१ छंद दंशन दुर्लभा हो, मुक्ति-सरोवर-नीर, इंद्री रहित जीया हो, पीवहुं निर्मल नीर; निर्मल नीर पीवईं तिरस भाजईं, विरह व्याकुल सो नहीं, सुगम पंथहि पथिक चालें, सप्त भयमें को नहिं; आत्म सरोवर ज्ञान सुखजल मुगति पदवी सुल्लभो, सुखेत सुकाल सुसमय गंमनो नहीं जोनि दुर्लभो. (१२) ३२ दुहा सो सुण बारह भावना, अंतरंगति उल्लास रमत्थ, सोति सपंडित जाणि तुं, ओर सबें अकयत्थ. (२) ३३ सुद्रव्य सुक्षेत्र सुकाल सुसुभाव समलीण, सहज शक्ति परगट भइ, आन न भासइ दीन. (३) ३४ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002640
Book TitlePrachin Madhyakalin Sahitya Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayant Kothari
PublisherL D Indology Ahmedabad
Publication Year2001
Total Pages762
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy