________________
५४०
प्राचीन मध्यकालीन साहित्यसंग्रह
छंद
निर्जरा तास की हो कम्मह तणा संयोग, थिति पूरी भई हो ताको होत वियोग; होत वियोग तिकां न राखै गवन दह दिसि धावही, पिछलो निवारो होइं ऐसो आगे ओर न आवही; यह शक्ति पुद्गल द्रव्य केरी मिलन विछुरन आसकी, ग्यानद्रष्टि धरि देखि चेतन होत निर्जरा तासकी. (९) २२
१०. लोक भावना
दुहा सकल द्रव्य त्रिलोकमें मुनिके पदतर दीन, जोग-जुगति करि थप्पिआ, निश्चयभाव धरीन. (१०) २३
छंद जे बाह्यांतर परमा तीन्यों लोक एहो, परम कुटी सुखवास मुनिज्जोगेंदी ऐहो. शुद्ध निरंजन भास तिन्हको सहज लीला कीजीए, तिस कुटी मांही भावधारा बाहरि पैर न दीजीइं; किस गुरू नाहींन कोई चेला रहैं सदा उदास ओ, आ लोक मध्ये कुटी रचना तीन काल सुखवास ओ. (१०) २४
११. धर्म भावना
दुहा धर्म करावें धर्म करइं, किरिया धर्म न होई, धर्म जु जाणण वस्तु वहें, ग्यानदृष्टि धरि जोई. २५ करन करावन ग्यान नहीं, पढन अर्थ नहीं ओर, ग्यानदिष्टि नहीं उपजें, मोहां तणई झकोर. (११) २६
सोरठी धर्म न पढीया होइ, धरम न काय तप तपें, धरम न दीइं दान, धरम न पूजा जप जपैं. (११) २७
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org