SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 107
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ प्राचीन मध्यकालीन साहित्यसंग्रह दूहो नाहले नावते आस भांगी, विरह-दावानले देह जागी[लागी], वास मन्मथ यौवन जीपे, नेन नकवेसर मृग कीर दीपे. ४९ [ढाल] काती माती रे कामिनि, दामिनीनी अनुहारि, मदमाती प्रीउ-संगथी, राती अंग उदार. अंगना अनंग खेलावती, भेलती अंगोअंग, रमण करे रमणी ग्रही, कां तुं तजे रस चंग. ५० शशिवयणी मृगनयणी रे, सोवनवान शरीर, सा करमांणी देहडी, जिम मृग वागे रे तीर. जिम पंथीजन जल विना, तापे सुके रे कंठ, तिम मुझ वालिम तुम विना, मयण संतापे उलंठ. ५१ कामणगारी रे कामिनी, जो होवे प्रीतम संग, माचे मननी मोद-सुं, खेले अंग अनंग. शरीर सुनुं सखी, सुंदर, मंदिर नही जव नाथ, दोहिलां दिन हुं नीगम, मोहन नही मुझ हाथि. ५२ - मास १२ एम न कीजे रे, नाहला, वाहला-स्युं केहो वाद, कामरसें रस चाखो रे, राखो दूरि विषाद. आवजो शिवने रे मंदिर, सुंदर मिलस्यु रे दोय, एहवो संदेसडो नेमनो, राजुले सुणियो रे सोय. ५३ दूहो वेदना विरहनी सर्व टाली, प्रीतडी अविचल तेण पाली, थयां संजोग ने वियोग भागां, प्रसर तिहां पुन्यने [प्रसरतां पुण्यनां] ग्रहण लागां. ५४ [ढाल] दीख दीधी शीख लीधी रे, पामी ते केवलज्ञान, पीउ पहेली शिवमंदिर, पोहती निरमल ध्यान. राजीमती ने नेमजी, पाम्यां ते अविचल वास, जनममरणभय टालियां, पालीयां बोल उल्लास. ५५ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002640
Book TitlePrachin Madhyakalin Sahitya Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayant Kothari
PublisherL D Indology Ahmedabad
Publication Year2001
Total Pages762
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy