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________________ तपगच्छनी पट्टावली ३७९ ३ श्री विजयचंद्रकेवलीचरित्रना कर्ता स्वर्गवास पाम्या. २७. विबुधप्रभसूरि : एवामां वीरात् १०१४ एटले सं.६७१ [६०१] वर्षे मालव देशमां धार नगरे श्री सम्मति ग्रंथना कर्ता श्री मल्लवादीसूरि थया. ते अवसरे श्री बप्पभट्टिसूरि प्रगट थया. बप्पभट्टिसूरि : जूडाहड[जुमाहड] देशे गोपाचलनी तलेटीए गोपनगर (ग्वालीअर) वसेलुं छे त्यां चहुआण श्री ओमराजा राज्य करता हता. एवामां श्री भारद्वाज वंशे प्रश्नवाहनकुलमां हर्षपूरीय गच्छे श्री बप्पभट्टीसूरि विहार करता आव्या. श्री गुरू उपकारीपणे धर्मकथा कहेता हता त्यारे राजा श्री आम [संघ] सहित गुरू प्रत्ये विनति करी के 'तमे महा साधु छो. भव्यजीवने पवित्र करवा जंगमतीर्थ छो. ते माटे आ गोपनगरमां चोमासु अवश्य रहो !' त्यारे गुरूए कह्यु, 'ज्यां लगी तमारी सुदृष्टि हशे त्यां लगी रहीशं !' एम कही श्री गुरू चोमासु रह्या. आम प्रमुख संघ श्री गुरूनी बहुविधि भक्ति साचवी निरंतर गुरू वांदी गुरूमुखे धर्मव्याख्यान सांभळी गुरूवाणिथी रंजित थका परम जैन राजा थयो. एकदा पुन्य तीथिने दिने आम राजानी स्त्री नीलां वस्त्रनो शणगार पहेरी गुरूमुख आगळ गुरूस्तुति साथे [गृहलीए] स्वस्तिक करे छे त्यां पगलेपगले वारंवार मुखे मरकलडा करे. त्यारे आम राजाए गुरूने पूछ्युं : बाला चमक्कंतीए ए ए कुणह थकी समुहभंगी, त्यारे गुरूए कह्यु : नूनं रमणी पएसे महलिया छवइ मुहभंगे. आ वचन सांभळी राजा म्लान मुखवाळो थयो, एटले श्री गुरूने मुक्ताफले वधावतां नील वस्त्र देखी वृद्धावस्थामां चक्षुना तेजनी हीणताना योगे नीला वस्त्र उपर श्री सूरिनी त्यां दृष्टि स्थीर रही. त्यां आमनी पण दृष्टि थई. चित्तमां संदेह थयो के साधुनी दृष्टि नील शणगार उपर रही. व्याख्यान सांभळी घेर आवी राजाए गुरूनी परीक्षा करवा अर्थे पोताना घरनी वडी दासीने नीलो शणगार पहेरावी रात्रीनो सवा प्रहर गया पछी शालामां गुरू पासे मोकली. जेवामां रात्रीए श्री बप्पभट्टीसूरि संथारापोरसी कही संथारामां संथार्या छे, त्यां ज तेणीए आवी आचार्यना चरणनो स्पर्श कर्यो. कोमल हाथ जाणी गुरूए का, “ए स्त्री कोण ?' त्यारे तेणे कर्तुं के 'राजानी राणीनी मुख्य दासी राजानी आज्ञाथी अहीं तुम्हारी भक्ति माटे आवी छु.' गुरूए निरादरे निभ्रंछा करी काढी. ते दासी म्लानमुखी थई. आम पासे आवी सर्व स्वरूप कडं. हवे श्री गुरूए उपयोग देतां थका धर्मकथाए नीला वस्त्रनो उपयोग थयो अने आमना मनमां संदेह थयो ए जाणी सुदृष्टिनी प्रतिज्ञा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002640
Book TitlePrachin Madhyakalin Sahitya Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayant Kothari
PublisherL D Indology Ahmedabad
Publication Year2001
Total Pages762
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size11 MB
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