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प्राचीन मध्यकालीन साहित्यसंग्रह सजण गया वदेस, तालू देई कुंची ठवी, ऊघाडउ कुंण रेसि, सरखं को देखें नही. ८० कलि खोटी घूहड भणइ, गुणह न जाणइ कोय, जस कीधउ ठवयारडउ, सोय जी वइरी होय. ८१ दानह वेलां ऊजलउ, विरलु को जगि होइ, जलहर जल देवा समइ, मन मलु [निम्मलु ?] नवि होइ. ८२ जे दीजइ पंचंगुलिं, ते पणि आगलि थाइ, मरइ तसा हलाहल, मोटक बंधि न जाइ. ८३ प्रीय पूठिं जोइ नहीं, नवि मानइ मोरी शीख, जस घरि जूया न खेलीई, तस घरि पउसि भीख. ८४ गुणवंता तुं जाणीइ, जउ गुणवंत मिलंति, निगुण पासि वसंतडां, सुगुणा गुणह गलंति. ८५ जिण दीठइ मन रंजीइ, अणदीठ; अणराउ, ते भेटेवा जाइइ, जोयण लाख सवाउ. ८६ वारू सरसी वार, लागई तु लागी भली, गुण ऊपजि अपार, अवगुण एक न ऊपजि. ८७ सजण सरसी गोठडी, मझ मनि खरी सुहाइ, आलि-स्यूं बोलावीइ, माणिक आपी जाइ. ८८ उत्तम कुलि जे ऊपजी, अनईं अधमे राचंति,
माणिक भणई ते बापडां, पोथां कांइं वाचंति. ८९ - इति सुभाषित. छ.
[जैनयुग, असाड-श्रावण १९८४, पृ.४१३-१५]
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