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________________ तपगच्छनी पट्टावली कीधा. सं.१००७मां शालानी स्थिति थई. ३८. अजीतसिंहसूरि : श्री सूरिना उपदेशथी मेवाड देशमां प्राग्वाट दोशी रूगनाथे ७ प्रासाद कराव्या. सं. १०१० वर्षे श्री रामसेन्य नगरे श्री ऋषभ चैत्ये श्री चंद्रप्रभ स्वामीनी बिंबप्रतिष्ठा थई. चारित्रशुद्धिविधिवज्जिनागमाद्विधाय भव्यानभितः प्रबोधयन्, चकार जैनेश्वरशासनोन्नतिं यः शिष्यलब्ध्याभि मनवो तु गौतम. १ नृपाद्दशाग्रे शरदां सहस्रे यो रामसेन्याह्वपुरे चकार, नाभेयचैत्येऽष्टमतीर्थराजबिंबप्रतिष्ठां विधिवत्सदर्च्यः. २ चंद्रावतीभूपतिनेत्रकल्पं श्रीकुंकुणमंत्रिणमुच्चऋद्धिं, निर्मापितो तुंगविशालचैत्यं योऽदीक्षयत् शुद्धगिरा प्रबोध्य. ३ वामां सं. १०२८ वर्षमां आचारांगसूत्र, सूयगडांगसूत्र तेनी टीकाना करणहार श्री शीलाचार्य प्रगट थया. पुनः ते ज वर्षे निवृत्तिगच्छे अनेक ग्रंथकारक श्री द्रोणाचार्य प्रगट थया. पुन: मालव देशमां उज्जयनिमां श्री लघु भोजराजनो राज्य थयो. तेना बेटा वीरनारायणे सं. १०७७मां सिवाणो गढ वसाव्यो. एवामां वि.सं. १०९४मां श्री वडगच्छे श्री लघु भोजदत्त वादीवेताल बिरूदधारके थिराद्रिय चहुआण क्षत्री प्रतिबोधक श्री शांतिसूरि प्रगट थया. श्री सूरिए चक्रेश्वरी, पद्मावतीना सहायथी छवढण [ छवठण] पाटणे सं.१०९७[१०९१]मां सातसें श्रीमाली गोत्रने धुलिकोट पडतो को एटले श्री संघरक्षक, श्री उत्तराध्ययननी वृद्ध टीका अढार हजारना कारक, पुनः जीवविचारप्रकरणना कारक कांनोहडी नगरे सं.११११मां श्री शांतिसूरि स्वर्गे गया. सं. १११७मां वडगच्छे श्री चक्रेश्वरीसूरिए ४१५ राजकुमार प्रतिबोध्या. पुनः धनपाल पंडिते श्री ऋषभ पंचाशिका, देशीनाममाला करी. Jain Education International ३८७ ३९. श्री यशोभद्रसूरि, लघु गुरुभाई श्री नेमिचंद्रसूरि : एवामां डोकरा आचार्य गुरू श्री उद्योतनसूरिनी आज्ञा लई श्री अझाहरी नगरथी विहार करता श्री गुर्जर अणहिल्लपाटणे आवी श्री वर्धमानसूरि स्वर्गे गया. तेना शिष्य श्री जिनेश्वरसूरि पाटणमां राजा श्री दुर्लभनी सभामां कुर्च्चपुरगच्छीय चैत्यवासी साथे कांस्यपात्रनी चर्चा कीधी. त्यां श्री दशवैकालिकनी गाथा कहीने चैत्यवासीने जीत्या. त्यारे राजा श्री दुर्लभे कं, 'आ आचार्य शास्त्रानुसारे खरूं बोल्या.' तेथी सं. १०८०मां श्री जिनेश्वरसूरिए 'खरतर ' बिरूद लीधो. तेना श्री जिनचंद्र, अने लघु गुरूभाई श्री अभयदेवसूरि, तत्पट्टे श्री जिनवल्लभसूरि थया. तेणे चित्रकूट पर्वते आवी श्री महावीरना छठनुं कल्याणक प्ररूप्यं. पुनः दोढसो छयासीया ग्रंथ निपजाव्यो. १३४ बोले करी खरतरगच्छनी समाचारी स्थापी. For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002640
Book TitlePrachin Madhyakalin Sahitya Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayant Kothari
PublisherL D Indology Ahmedabad
Publication Year2001
Total Pages762
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size11 MB
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