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________________ जिनवर्धनगणिकृत पद्यानुकारी गद्यमय तपगच्छ गुर्वावली ३३५ जेहनई नामि, तेह तणइ संतानि, कोटिक इसिई नामिदं गणि, श्री वयरस्वामि तणी शाखां अतुलि, विपुल श्री चंद्रकुलि ए श्री वडगच्छ ऊपनउ, किम, सांभलउ, सावधान थई करी. ईणअं श्री वर्द्धमानस्वामि तणइ पाटि पहिलउ, अनेक गुणमणिभूधर, श्री सुधर्मस्वामि गणघर, जाणिवउ. तेह तणइ पाटि २ श्री जंबूस्वामि हीआमाहि आणिवउ. जीणई श्री जंबूस्वामिइं अतिविनीत, नवपरिणीत, आठ नारी, ९९ कोडि सुवर्णि करी सारी, लीलामात्र परिहरी, अनइ श्री संयमलक्ष्मी वरी. एहं बिहुं आचार्य प्रतिई ऊपनउं विमल केवलज्ञानु, जगमाहि प्रतपिआ जिम भानु. तेह तणइ पाटि ३ श्री प्रभवस्वामि गणधर जीणंइं पांचसई चोर तणउ परिवार छांडी, अनइ संवेग लगइ चारित्रकंन्या मांडी. तेह तणइ पाटि ४ श्री सय्यंभवसूरि, जेह प्रतिइं अज्ञान नाठउं दूरि, जीणं करावतां यज्ञ, मुनिवचन सांभलउं धन्यु, खड्गु काढी पूछिउ तत्त्वविचारु, तउ देखाडइ यानी जिनप्रतिमा सारु, मनि ऊपनउ संवेग अपार, तउ लीधउ संयमभारु, जेहे कीधउ सिद्धांत सारु, ग्रंथ दशवैकालिक चारु, साधिउं मणग चेलानउं काजु, जे अजी वर्त्तइ छइ लगइ आजु. तेह तणइ पाटि ५ श्री यशोभद्र, जेहतउ पामीइं भद्र. हत पाटि ६ बि शिष्य, कृतमोहमल्लविजय श्री संभूतिविजय, अनइ श्री भद्रबाहुस्वामि जे श्री भद्रबाहु गुरु, बुद्धि करी जाणे छइ देवनउ गुरु, जीणअं अनेक नवी नियुक्ति कीधी, तउ पछइ सुखिनं सिद्धांत भणी अर्थसंगति सीधी. अनइ संभूतिविजय तणइ पाटि ७ श्री स्थूलभद्र, जेहनई नामिदं नीपजइ सर्वतोभद्र, जीणं फेडिउ मयण भडवाउ, तउ ऊपनउ जगि जसवाउ, जेह तणउं बोलासिइ चरित्र, चउरासी चउवीसी लगइ पवित्र पछइ गणधर नीपना १४ पूर्वधर. तेह तण पाटि ८, शिष्य २ हुआ; पहिलउ श्री जिनकल्पतुलनाकरणहार, श्री महागिरि गणहार, जेहना संतानविभूषण, अनेक आचार्य नीपना अदूषण. अनइ बीजउ शिष्य, श्री सुहस्तिसूरि दक्ष. तेह तण पाटि ९ श्री सुस्थित- सुप्रतिबद्ध, जगमाहि नीपना प्रसिद्ध, जीहं थिकउ कौटिक गण प्रवर्त्ति. कौटिक किसिउं कहीइ, सांभलउ - जेतलउं वस्तु सर्वज्ञ देखइ, तेहनउ कोडिमउ भाग सूरिमंत्रनउ ध्याणहार पेखइ, तेह कारण कोट्यंश मंत्र बोलाइ, तेह मंत्रनई संबंध गण बोलाइ. तेह तणइ पाटि ११ श्री दिन्नसूरि. तेह तइ पाटि १२ गुणमणिरोहणगिरि, सूरि श्री सिंहगिरि तेह तणइ पाटि १३ दशपूर्वघर, श्री वयरस्वामि गणघर, जीणं बालि कालि रोदननई बलिर्इं माता मनावी, श्री गुरु समीपि आवी, पालनइ सूतई, धर्मनइ धुरि जूतई, ११ अंग Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002640
Book TitlePrachin Madhyakalin Sahitya Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayant Kothari
PublisherL D Indology Ahmedabad
Publication Year2001
Total Pages762
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size11 MB
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