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प्राचीन मध्यकालीन साहित्यसंग्रह तथा श्री हीरविजयसूरि प्रमुख इम कहइ छइ जे केवलीना शरीरथी अवश्यभावी पण कदाचित् त्रस थावरना जीवनी विराधना थाइ तु नहीं; अनइं सागर तु इम कहइ छइ जे केवलीना जीवथी विराधना मानइ ते उत्सूत्रभाषी. एहवू पोताना शास्त्रमांहि पणि सागरे आण्यु छइ ए सातमुं बोल. ७
तथा श्री हीरविजयसूरि प्रमुख इम कहइ छइ जे अनादि सूक्ष्म निगोदीया जीवनइं अव्यवहारीया कहीइ बीजा सर्व जीवनइं व्यवहारीया कहीइ; अनइं सागर तु इम कहइ छइ जे सूक्ष्म निगोद १, बादर निगोद २, सूक्ष्म पृथ्वीकाय ३, सूक्ष्म अपकाय ४, सूक्ष्म तेजकाय ५, सूक्ष्म वाउकाय ६, ए छ प्रकारना जीवनईं अव्यवहारीआ कहीइ, जे कोइ एकला सूक्ष्म निगोदना जीवनइं अव्यवहारीआ कहइ छइ ते सघला अज्ञानी जाणवा. एहq पोताना शास्त्रमांहि पणि सागरि लख्यु छइ. ए आठमुं बोल. ८
तथा श्री हीरविजयसूरि प्रमुख कहइ छइ जे मरीचिं कपिल आगलि ‘दुप्भासिएण इक्केण सिरीई दुखसागरं पत्तो' ए वचन कहिउ ते उत्सूत्र कहीइ; अनई सागर तु इम कहइ छई जे ए वचन उत्सूत्र न कहीइ, दुर्भाषित कहीइ. ए नुमु बोल. ९.
तथा श्री विजयसेनसूरई खोटा जाणी सर्वज्ञशतक ग्रंथ अप्रमाण कर्यु छई, अनइ सागर तु इम कहइ छइ जे ए ग्रंथ अह्मो प्रमाण करसिउं. इत्यादिक घणा बोलनी सागरनी विपरीत प्ररुपणा छइ ते प्रीछ्यो अनइं एहवा उपरि श्री विजयदेवसूरि सागरनुं पासुं करइ छइं अनइ वारता नथी ते माटइ धर्मना अर्था हुइ तेणे विचारवं. ए दसमु बोल. १० (जैन एसोसिएशन ओफ इंडियानी एक पत्रनी प्रत नं.११८२.)
[जैनयुग, आश्विन १९८१, पृ.५९-६०]
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