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गुणाकरसूरिकृत श्रावकविधि रास
५६१ रयणिहि वीतइ पढम पहरि नवकार भणेविण, अरिहंत सिद्ध सुसाध धम्म सरणइ पइसेविण; पचखाण सागार करवि सवि जीव खमेविण, सावय सोवइ पुव्व तिहां बंभइ भावई मणु. ४२
वस्तु अत निद्दिहिं अत निद्दिहिं चित्ति चिंतेइ, सतुज्जि उज्जउ चडवि जिणइ पूय कइयइ कराविसु; साहम्मिय गउरव करिसु कइय कइय पुत्थय भराविसु, छंडवि धंधउ इय घरह कइयइ संजम लेसु; समरसि लग्गवि कइय हुं फेडिसु कम्मकिलेसु. ४३
भास नितु नितु सहगुरु-पाय वंदिज्जए, संभलउ साविया सीख तुम्ह दिज्जए; गलह उह्नालए तिन्नि वारा जलं, लेविण गलण ए तुम्ह अइ नीसलं. ४४ सेस काले वि बे वार जल गा(ल)उ, मीठ-जल खार-जल जीव मा मेलहो; राखउ सूखतउ तुम्हि संखारउ, वत्थह धोवण गलिय जलि कारउ. ४५ दुद्ध दहि तेल घृत तक्क ढंकवि धरउ, माखीय पमुह तिहि जीव मा पडि मरउ; । सोधवि धन्न रंधन पीसउ दलउ पउंजि बे वार ए चुहलि घर ऊखलउ. ४६ जाणवि जीव जो इंधण जालंए, अड्डमी चउदसी पमुह तिहि पालए; जीवदयं सार जिणवयण जो संभरइ, जयण पालति नरनारि ते भव तरइ. ४७ पक्खि चउमासि संवच्छरी खामणा, सुगुरु पासंमि उच्चरिय आलोयणा; करइ जो आउ पज्जंत आराहणा, तासु परलोय गइ होइ अइ सोहणा. ४८ एम जो पालए ए वर सावय-विही, अट्ठ भव माहि सिवसुख सो पाविहि; रास पदमाणंदसूरि सीसहि कीयउ, तेर इगहत्तइ एह ललियंगउ. ४९ जो पढइ जो सुणइ जो रमइ जिणहरे, सासणदेवि तासु सानिधि करइ; जाम ससि सूर अरु मेरुगिरि नंदणं, तां जयउ तिहुयणे एह जिणसासणं. ५० - इति श्री श्रावकविधि संपूर्ण लि. पुरोहित लक्ष्मी (ना)रायण (सं.१९८४)
(पत्र ३-१६ नवीन प्रत, प्राचीन प्रत परथी नकल नं.२३२९ श्री मुक्तिकमल जैन मोहन ज्ञानमंदिर, वडोदरा)
[जैनाचार्य श्री आत्मारामजी जन्म शताब्दी ग्रंथ, १९३६, हिंदी विभाग, पृ.७५-८०]
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