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प्राचीन मध्यकालीन साहित्यसंग्रह
श्री विजयदानसूरिगुरूभ्यो नम:. संवत १६४६ वर्षे पोष शुद १४ शुक्रे श्री पत्तन नगरे श्री हीरविजयसूरिभिर्लिख्यते, समस्त साधु साध्वी श्रावक श्राविका योग्य श्री विजयदानसूरिप्रासादात् सात ७ बोलनाऽर्थ आश्री विसंवाद टालवानइ काजई तेह ज सात बोलनो अर्थ विवरीनइं लिखिइं छइं. बीजा पणि केटलाएक बोल विवरीनइं लिखीइं छइं,
परपक्षीनिं कुणइ किस्यो कठिन वचन न कहिवं. १
तथा परपक्षीकृत धर्मकार्य सर्वथा अनुमोदवा योग्य नहीं इम कुणइ न कहि, जे माटइ दान, शुचिपणुं, स्वभावइ विनीतपणउ, अल्पकषायीपणुं, परोपकारीपणुं, दाखिणालूपणूं, प्रियभाषिपणुं, इत्यादि जे जे मार्गानुसारी धर्मकर्त्तव्य ते निज शासनथी अनेराइं समस्त जीवसंबंधिया शास्त्रनइ अनुसारइ अनुमोदवा योग्य जणाइं छइं तो जैन परपक्षी संबंधी मार्गानुसारी धर्मकर्तव्य अनुमोदवा योग्या होइं ते वातनुं स्युं कहवं. २
गछनायकनइ पूछ्या विना शास्त्र संबंधिनी किसी नवी परूपणा न करवी. ३
दिगंबर-संबंधियां चैत्य १, केवल श्राद्धप्रतिष्ठित चैत्य २, द्रव्यलिंगीनिं द्रव्यनिष्पन चैत्य ३ ए त्रिणि चैत्य विना बीजां चैत्य वांदवा पूजवा योग्य होइं ए वातनी शंका न करवी. ४
___ तथा स्वपक्षीना घरनइ विषइ पूर्वोक्त त्रिणिनी अवंदनिक प्रतिमा होइ ते साधुनइ वासक्षेपइ वांदवा पूजवा योग्य होइ. ५
तथा साधुनी प्रतिष्टा शास्त्रइ छइ. ६
साधर्मिक वात्सल्य करतां स्वजनादिक संबंध भणी परपक्षीनिं जमवा तेडइ तो साहमीवत्सल फोक न थाइं. ७
तथा शास्त्रोक्त देश विसंवादि निह्नव सात सर्व विसंवादी निह्नव १, ए टाली बीजा कोइनिं निह्नक न कहवा. ८
परपक्षी संघातई चर्चानी उदीरणा कुणइ न करवी, परपक्षी कोइ चर्चानी उदीरणा करइ तो शास्त्रनइ अनुसारइ उत्तर देवो. पणि क्लेश वाधइ तिम न करवू. ९
तथा श्री विजयदानसूरई बहु जन समक्ष जलशरण कीधो ते उत्सूत्र कंद कुंद्दादल ग्रंथ ते माहिलो अर्थ बीजाई कोइ शास्त्रमाहिं आण्यो होइ ते अर्थ तिहां अप्र(माण जाणवो. १०
स्वपक्षीय सार्थनइ अनुयोग्यईं परपक्षीय साथई यात्रा कर्या माटइ यात्रा फोक न थाइ.११
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