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________________ ४८० प्राचीन मध्यकालीन साहित्यसंग्रह माटे अपवादे आभोगे, हिंसाए पण जेम आशयशुद्धताथी दोष नहीं तेम अपवाद विना अशक्यपरिहार जीवविराधनाए पण आशयशुद्धताए ज दोष न होय, नहीं तो विहारादिक क्रिया सर्व दुष्ट थाय. सिद्धांतथी विराधनानो निश्चय थये पोताने अदर्शनमात्रे जो विहारादिक क्रियामा जे विराधना छे ते अनाभोगे ज कहीए तो निरंतर जीवाकुल भूमि निर्धारी, तिहां रात्रिविहार करतां विराधनानो अनाभोग ज कहेवाय. ७० 'नदी उतरतां आभोगे जळजीवविराधना यतिने होय तो जळजीवघाते विरति परिणाम खंडित होय ते भणी देशविरति थाय जाणीने एकव्रतभंगे सर्वविरति रहे तो सम्यग्दृष्टि सर्वने चारित्र लेतां बाधक न होय' एवं कहे छे ते न घटे, जे माटे नदी उतरतां द्रव्यहिंसाए आज्ञाशुद्धपणे ज दोष नथी. तथा सम्यग्दृष्टियोग्यता जाणीने ज चारित्र आदरे, जेम व्यापारी व्यापार प्रते. पछे थोडी खोटी होय अने संभाळी ले तो बाधा नहीं, पण पहेलां खोटी जाणी कोई सबलो व्यापार आदरे नहीं ते प्रीछवं. ७१. __'अपवादे जिननो उपदेश होय पण विधिमुखे आदेश न होय' एवं कहे छे ते खोटुं, जे माटे छेदग्रंथे अपवादे घणां विधिवचन दीसे छे. ७२ 'वस्त्रे गळ्युं ज पाणी पीq - इहां पीवानो सावधपणा माटे विधि नहीं पण गळवानो ज विधि' एवं कहे छे ते न मिले, जे माटे गाळ्युं पाणी पण शास्त्रे कर्तुं छे. यतः उस्सिंचणगालणधोअणे य अवगरणकोसभंडे य, वायर आउक्काए, एयं तु समासओ सत्थं. इति आचारांगसूत्रस्यनिर्युक्तौ ७३ 'द्रव्यहिंसाए द्रव्यथी हिंसानु पच्चखाण भांगे' एवं कहे छे ते न घटे, जे माटे धर्मोपकरण राखतां द्रव्यथी परिग्रहनु पच्चखाण भांगे एवं दिगंबरे कर्तुं छे तिहां विशेषावश्यके द्रव्यक्षेत्रकाळथी भावनु ज पच्चखाण होय पण केवळ द्रव्यथी भंग न होय ए रीते समाधान कर्यु छे. ७४. 'श्रावकप्रतिक्रमणसूत्रवृत्तिमां हिंसानी चोभंगीमां 'द्रव्यथी तथा भावथी न हिंसा, मनोवाक्कायशुद्ध साधुने' ए भांगो कह्यो छे तेनो स्वामी १३मा गुणठाणानो धणी ज, जे फलावे छे अने १४मा गुणठाणानो धणी निषेधे छे. मनवचनकाययोग विना तेथी शुद्ध न कहेवाय, जेम वस्त्र विना वस्त्रे शुद्ध न कहीए ते भणी' ते खोटुं, जेम जळस्नाने जळy संसर्ग टळ्या पछी पण जळे शुद्ध कहीए तेम अयोगीने योग गया पछी पण योगे शुद्ध कहीए, ते माटे साधु सर्वने जे वारे द्रव्यहिंसा गुप्तिद्वाराए न होय ते वारे ४थो भांगो घटे. ७५ 'द्रव्यहिंसा पण हिंसादोषस्वरूप' एवं कहे छे ते न घटे. जे माटे Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002640
Book TitlePrachin Madhyakalin Sahitya Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayant Kothari
PublisherL D Indology Ahmedabad
Publication Year2001
Total Pages762
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size11 MB
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