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________________ ६१६ प्राचीन मध्यकालीन साहित्यसंग्रह धर्मवती बेटी भली, काह अधम्मी पूत; छालि के गलि दोय थणां, तामैं दूध न मूत. आसण केरूं गूबड़े खिण खिण खटकें धर्मकथामा वात करै, तेहळू वाहलूं जेह; तेह. तेजी न खमें ताजणो, खिति न सहइ खगधार; सुरा मरण ज आगमैं, पण न सहइ तुंकार. रूपें रूडा मोर, प्रीतें पारेवां भला; धान विणासण ढोर, पाघडियाला पालउत. वांझि न जाणे वेदना, पूत्र प्रसवतां; प्रीत न जाणे पालीयां, जूगतिं जालवतां. या तो घर हे प्रेमका खलांका[खालाका] घर नांहि; सीस सटोसटि साटवई, तव पेसें घरमांहिं. तरूवर कबहु न फल भखइं, नदी न पीवइं नीर; परमारथके कारणइ, सज्जन धर्या सरीर. विरला जाणंति गुणा, विरला पालंति निद्धणा नेहा; विरला परकज्ज-करा, परदुखिए दुखिआ विरला. धन उपगारी माणसां, परनी पीड हरंत; सांइ तेहनि राखस्, हाथे छांह करंत. कवित लज्जावंत दयावंत प्रशांत प्रतीतवंत, परदोषके ढकैया परऊपगारी हे; सोमदृष्टी गुनग्राही गरिष्ट सबको ईष्ट शिष्टपक्षी मिष्टवादि[दीरघविचारी] हे; विशेषग्य रसग्य कृतग्य धर्मग्य न दीन न अभिमानी मध्यमधारी [मध्यविवहारी] हे, सहज विनीत पापक्रियासो अतीत, एसो श्रावक पुनीत इकईस गुनधारी हे. धन योवन ठकुराइयां, सदा काल न होय, ज्युं रूंखा त्युं मानवी, छाह फिरंती जोय. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002640
Book TitlePrachin Madhyakalin Sahitya Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayant Kothari
PublisherL D Indology Ahmedabad
Publication Year2001
Total Pages762
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size11 MB
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