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________________ ६१५ जूनां सुभाषितो (श्रावक गोडीदासकृत 'नवकार रास मांथी) (र.सं.१७५५.) [कवि अने तेमनी कृति माटे जुओ जैन गूर्जर कविओ भा.५ पृ.१५८-६१ तथा गुजराती साहित्यकोश खं.१ पृ.९३. आ कृतिनी ला.द.भारतीय संस्कृति विद्यामंदिरनी बे हस्तप्रतो - क्र.४३४५ (ले.सं.१७६६) तथा क्र.५७०७ (ले सं.१७८५)ने आधारे अहीं थोडी पाठशुद्धि करवामां आवी छे. ए नोंधपात्र छे के बन्ने प्रतो सुभाषितोनी योजनामा क्यांक-क्यांक फरक बतावे छे अने ए बन्ने प्रतोमां मळतां नथी तेवां कोईकोई सुभाषित अहीं छे. - संपा.] ए दोउ आवत एक मग्ग, पूत मूत कहें नंद; पूत सपूती नां करें तो पूत मूत थई मंद. कुलमां दीवो होय, जगदीवा दिसें घणा; तारे ते जन होय, चांद विहूणा चांदूया[चांचूआ]. नमना नमना सब कहें, नमनामें विंगनांन; कपटी माणस इउं नमें, चीता चोर कमाण. जो कोइ नमे सो आपकुं, परकुं नमे न कोय; थालि तराजू तोलीयें, नमें सों भारी होय. दाद दूनीआं बावरी, डरीए लोक बलाय; बिन देखी बिन सांभली, कहत बनाय बनाय. सरिखें सरिखा जो मिलें रे, तो कीजें गुणगोठि; मूरख-स्युं मीलीयई नही रे, वात न आवे होठ रे. जे नर रूपें रूअडा, ते नर निगुण न होय; सोना करें पांजरे, काग न घालें कोय. जाणपणुं जगदोहिलं, धन कालाहि[कालानइ] होय; जल जल [जल विण] कमल न नीपजें, खर केकाण न होय. लाखें एक लखेसरी, सहस्सें एक सुजाण; जेता बांधे पाघडी, तेता पुरुष न जाण. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002640
Book TitlePrachin Madhyakalin Sahitya Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayant Kothari
PublisherL D Indology Ahmedabad
Publication Year2001
Total Pages762
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size11 MB
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