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________________ ६१४ प्राचीन मध्यकालीन साहित्यसंग्रह Jain Education International धर्मप्रभाव शशि सूर्य चालइ, धर्मप्रभावें फल वृक्ष आलें, धर्मप्रभावें जल मेघ मुकें, समुद्रमर्याद थिको न चूके. १ हवि वाया, मेहना दीह भराया, पवन आया, नगर गिरि मारवा मार धाया, गणि जलद गाजइ, माहरू मान भाजिं, कलि हिविं किम छाजे, कंतडा सिउ न लाजें. २ विहसति हसती हसती हियडुं हरइ, गजगति चमकंती संचरइ, मुखे मयंक मनोहर साधरें, मनह ते रमणी किम उतरइ. ३ वर्षाकाले चिणा मीठा, उष्णकाले च गूघरी, सीतकाले तिला मीठा, सदा मीठी च बाजरी. ४ कलि कूडो, कविअण भणइ, कह्युं न जाणई कोय, जस कीजइ उवयारडो, सो फिर वयरी होय. ५ (आंबो १ भेंस २ पोठी ३ पुरुष स्त्री शील मंत्र भस्मसात् कृत: . ) सुख गयां सवि सासरइ, पीहरि टलीयां मान, कांतविणी कामिनी, जिहां जाई तिहां रांन. ६ रे सीहा, म म गव्व करि, चढि आयो सुलतान, किं बल दाखवि अप्पणो, किं अवगाहो रांन. ७ वाडां वाजो जण मिल्यो, मलो ते रांणोराण, जउ मुझ दीठई डग भरि, तो जननी अप्रमाण ८ [जैनयुग, मागशर- पोष १९८६, पृ.२००] ७ परथल पीधोड जेह, पावासररे पावटे, नानकडें नाडेह, जीवन ढूके, जेजुडा १ पावासर पेसेह, रंजो के हिर्यो नही, बुग पासै बेसेह, गयो जमारे, जेठुआ. २ घट गलह लीयो जाय, पंजर पग मांडे नही, खटके कालजा मांह, कोईक भलको भीमउत ३ भंभलीया नयणांह, नीसरते वाह्या निपट, अति हीअणिया लाह, खटकण लागा कालजै. ४ जे हुआ बहु जाण, अजाणतो मेंइ नही, पाछा दीयो ज पाण, जावा न घुं, जेठुआ. ५ (एक पत्र, महाजननां चोवीस नातनां कवित साथे, मुनि जशविजय संग्रह) [जैनयुग वैशाख - जेठ १९८६, पृ. ३६८ ] For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002640
Book TitlePrachin Madhyakalin Sahitya Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayant Kothari
PublisherL D Indology Ahmedabad
Publication Year2001
Total Pages762
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size11 MB
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