SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 490
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ यशोविजयगणिकृत १०८/१०१ बोल ४७५ होइ जाय. ३९ ‘इयमयुक्ततराद् दुरंतानंतसंसारकारणं' एवं श्राद्धप्रतिक्रमणचूर्णिमां कर्तुं छे तेहनो अर्थ ए, ए विपरीत प्ररूपणा, ‘घणुं अयुक्त दुरंतानंत संसार- कारण इहां' एवं लख्यु छे, ते दुरंतानंत शब्दनो अर्थ न मिले. दुरंत तो जेनो दु:खे अन्त आवे, अनंत ते जेनो अंत न आवे ते, ए पूर्वाचार्यना ग्रंथ खंडियानी खोटी कल्पना, जे माटे दुरंतानंत कहेतां महानंत कहीए. 'कालमणंतदुरंतं' ए उत्तराध्ययन वचनननी साखे ईहां कोई दोष नथी. ४० जिनवचननो दूषनार जमालिनी परे नाश पामे, अरघट्टघटीयंत्रन्याये संसारचक्रवाल भमे एवं सूयगडांगनियुक्तिवृत्तिमां कर्तुं छे ते माटे जमालीने अनंतो ज संसार' एवी कल्पना करे छे ते न घटे, जे माटे दृष्टांतमात्रे साध्यसिद्धि न होय; नहिं तो उत्सूत्रप्ररूपणा अनंतसंसारहेतु कही छे त्यां श्राद्धप्रतिक्रमणचूर्णि, श्राद्धविधि आदि ग्रंथमां मरीचि दृष्टांत कह्यो छे ते भणी मरीचि पण अनंतसंसारी होई जाय; तथा सूत्रविराधनाए अनंता जीव चतुरंत संसार जमालिनी परे भम्या एवं नंदिवृत्तिमां कर्तुं छे ते भणी जमालीने चारे गति होइ जोईए. ४१ _ 'जमाली णं भंते ! देवे ताओ देवलोगाओ कहिं गच्छिहिति कहिं उववज्जिहिति, गोयमा ! चत्तारिपंच तिरिक्खजाणिय-मणुअ देवभवग्गहणाइं संसारं अणुपरिअट्टित्ता तओ पच्छा सिज्झिहिति' ए भगवतीसूत्रमा ‘चत्तारि पंच' कहेतां नव भेद तिर्यंचना लेइ एम अनंता भव जमालीने थाय' एवं लख्युं छे ते न मले, जे माटे एवो विषम अर्थ पूर्वि कणि विवरीओ नथी तथा नव भेद तिर्यंचमां पण नियमे अनंता भव आवे नहि. ४२ कोईक 'तिर्यंचनी कायस्थिति लेइ जमालीने अनंता भव' कहे छे ते पण कल्पना मात्र, जे माटे सूत्रमा भवग्रहण ज कह्या छे. ४३ च्युत्वा तत: पंचकृत्वो भ्रान्त्वा तिर्यग्नृनाकिषु, अवाप्तवोधिनिर्वाणं जमालिः समवाप्स्यति. ए हैमवीरचरित्र श्लोकमां एवं कर्तुं छे जे जमालि त्यांथी चवी पांच वार तिर्यंच मनुष्य देवतामा भमी मोक्ष जशे, एथी अनंत भव नथी जणाता; तिहां कोई कहे छे जे ‘पांच वार तिर्यंचमां भमतां अनंत भव थाय' ते न मिले, जे माटे भवग्रहणे भमतां अनंत भव न घटे. ४४ ___'देवकिब्बिसिया णं मंते ! ताओ देवलोगोओ आउक्खएणं भवक्खएणं ठिइक्खएणं अणंतरं चयं चइत्ता कहिं गच्छिंति कहिं उववज्जिंति, गोयमा ! जाव चत्तारि पंच णेरइअतिरिक्खजोणिया-मणुस्सदेवभवग्गहणाइं संसारं अणुपरिअट्टित्ता तओ पच्छा सिझंति Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002640
Book TitlePrachin Madhyakalin Sahitya Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayant Kothari
PublisherL D Indology Ahmedabad
Publication Year2001
Total Pages762
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy