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प्राचीन मध्यकालीन साहित्यसंग्रह
तुज गुणश्रवणें दो श्रवण मस्तक प्रणिपाते, शुद्ध निमित्त सवे हूया, शुभ परिणति थाते; विविध निमित्त विलास सवी ए विलसे प्रभु एकांत, अवतरीओ अभ्यंतरे निश्चल ध्येय महंत. २ भावदृष्टिमां भावते - व्यापक सवि ठामे, उदासीनता अवर-सुं लीनो तुझ नामे; दीठा विणु पण देखीए, सूतां पण जगवे, अपर विषयथी छांडवें इंद्रिय बुद्धि त्यजवे; पराधीनता मिट गइ ए, भेदबुद्धि गइ दूर, अध्यातम प्रभु प्रणमिओ चिदानंद भरपूर. ३ पूजक-पूज्य-अभेदथी कुण पूजारूप, द्रव्यस्तव रहिओ द्रव्यरूप एह शुद्ध स्वरूप; आतम परमातम भयो, अनुभवरस सगतें, द्वैतभाव-मल नीकल्यो भगवंतनी भगतें; आतमछंदे विलसतां ए प्रगट्यो वचनातीत, महानंद रस मोकलो, सकल उपाधि व्यतीत. ४ ज्योति शुं ज्योति मली गइ, पर रहें निज अवधे, अंतरंग सुख अनुभवं प्रभु आतमलबधे; निरविकल्प उपयोगरूप पूजा परमारथ, कारक ग्राहक एह प्रभु चेतन समरथ; वीतराग इम पूजतां ए, लहीए अविहड सुख,
मानविजय उवझायना, नाठां सयल दु:ख. ५ लि० राजनगरे. (१-११ प्रत)
[जैनयुग, आषाढ श्रावण १९८३, पृ.५०२] ११. आनंदघननु एक अप्रसिद्ध पद । [आनंदघनना परिचय माटे जुओ 'आनंदघन चोवीशी/बावीशी अने छेल्लां बे स्तवनो,' - संपा.]
सोरठ कंत चतुर दिल ज्यांनी हो मेरे, ज्यों हम चीनी सो तुम कीनी, प्रीत चोर दोय चुगल महिलमै, वात कछू नही छांनी. हो मेरे. २
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