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ज्ञानवैराग्यनां केटलांक अप्रसिद्ध काव्यो
५६९ कुलगर पनरे जंबु पन्नती समवायांगे कुलगर सात, हरी बारमो जिन आठमे अंगे तेरमो चोथे अंग कहात. १४ स्या० सूत्र टीका नियुक्ति वखाणी चूर्णी भाषा ए मेलो पंचांग, ए पंचे कहे ते मानो साचुं, एण अर्थे म करो खल खंच. १५ स्या. जीवाभिगम असंघयणी भाख्या, नारकी श्री भगवंत, उगणीसमें श्री उत्तराध्ययने मांसपिंड बोल्या सिद्धांत. १६ स्या० चारित्र विराध्यु पंचमे अंगे भुवनपतिमां सुर थाय, सुकुमालिका छठे अंगे, किम दुजें देवलोक जाय. १७ स्या. विण व्याकरणे अर्थ जे भाखे, अर्थ नही ते अनरथ जाण, भागी नाव नदी किम तरीईं, दसमें अंगे कहे जगभाण. १८ स्या. श्री जिनप्रतिमानो वेयावच कर्मनिर्जरा काज, दशमे अंगे साधु भणी ए, अर्थ विचार कह्यो जिनराज. १९ स्या. हेय ज्ञेय उपादेय वखाण्यो इम उत्सर्ग अने अपवाद, विधि चारितानुवाद नयसंस्थित निश्रय ने व्यवहार माद. २० स्या. अनेकांतनयवादी जिनवर सिद्धांतमांहि कह्या दस बोल, कहे श्रीसार परिक्षा परिखो, श्री सिद्धांतरत्न बहुमोल. २१ स्या.
[जैन श्वेताम्बर कोन्फरन्स हेरल्ड, एप्रिल-मे-जून १९१८, पृ.१३५-३६] १०. मानविजयकृत अध्यात्म ऋषभ नमस्कार स्तुति (विक्रम १.मुं शतक.)
['जैन गूर्जर कविओ' मां आ कृति नोंधायेली नथी. गुजराती साहित्यकोश खं.१ पृ.३०९ पर ए नोंधायेल छे, पण कविनी विशेष ओळख नथी. आ कृति 'जैन काव्यप्रकाश' (भीमसिंह माणक) पृ.८६ पर छपायेल छे. - संपा.]
अलख अगोचर अकलरूप अविनाशी अनादि, एक अनेक अनंत संत अविचल अविषादी; सिद्ध बुद्ध अविरूद्ध अजरामर अभय, अव्याबाध अमूरतीक निरूपाधि निरामय; परमपुरुष परमेसरू ए प्रथम नाथ प्रधान, भवभयभावठभंजणो भजीइ श्री भगवान. १ रसना तुझ गुण संस्तवें, दृष्टि तुज दर्शन, नव अंगे पूजा समें काया तुझ स्पर्शन;
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