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ज्ञानवैराग्यनां केटलांक अप्रसिद्ध काव्यो
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पांच रू तीन त्रिया मंदिरमे, राज करै राजधानी, हो, एक त्रिया सब जग वस कीनौ, ज्ञानखडग वस आनी. हो मेरे० ३ च्यार पुरूष मंदिरमें भूखै, कबहुं त्रिपत न आंनी, हो, दस असील ईक असली बूझै, बूझ्यौ ब्रह्मज्ञानी. हो मेरे. ४ च्यारूं गतिमैं रूलतां बीते, कर्मकी किनहुं न जानी, आनंदघन इस पदकुं बूझै, बूझ्यौ भविकजन प्राणी. हो मेरे० ५
[जैन श्वेताम्बर कोन्फरन्स हेरल्ड एप्रिल-मे-जून १९१८, पृ.१६०]
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