________________
५१८
प्राचीन मध्यकालीन साहित्यसंग्रह रहे वचे एक समयादि षट आवलि, सहीय स्वासादिनी थिति इसी सांभली, हवे इहां मिश्र गुणठाण त्रीजो कहे, जेह उत्कृष्ट अंतर्मुहूर्त रहे. ९
ढाल : बे कर जोडी पहिला चार कषाय सम कर समकिती केतो सादि मिथ्यामति ए, बैहि ज लहे मिश्र सत्य असत्य जिहां सद्दहणा बिहुं छती ए. १० मिथ गुणालय माहे मरण लहे नहि, आयु बंधन पडे न वेए, केतो लहि मिथ्यात के समकित लही मति सरिखी गति परभवे ए. ११ चार अप्रत्याख्यान उदय करी लहे व्रत विण शुध समकितपणो ए, ते अविरति गुणठाण तेत्रीस सागर साधिक थिति एहनी भणो ए. १२ दया उपशम संवेग निर्वेद आस्था समकित-गुण पांचे धरे ए, सहु जिनवचन प्रमाण, जिनशासन तणी अधिक अधिक उन्नति करे ए. १३ कंइक समकित पाइ, पुद्गल अरधना उत्कृष्टा भवमा रहे ए, कंइक भेदी ग्रंथी अंतर-मुहुरते चढते गुण शिवपद लहे ए. १४ चार कषाय प्रथम त्रण वली मोहनी मिथ्या मिश्र सम्यक्त्वनी ए, साते परिकृत[परकृति] जास परही उपशमें ते उपशम समकित धणी ए. १५ जिण साते क्षय कीध ते नर क्षायकी, तिणहि ज भव शिव अनुसरे ए, आगळ बांध्यो आय तो ते तिहां थकी तीजे चोथे भव तरे ए. १६
ढाल : इण परि कंबल पंचमे देश विरति गुण ठाण, प्रगटे चौकडी प्रत्याख्यान, जिणे तजे बावीस अभक्ष, पाम्यो श्रावकपणुं प्रत्यक्ष. १७ गुण एकविंशति पण धारे, साचा बारे व्रत संभारे, पूजादिक षट कारिज साधे, अग्यार प्रतिमा आराधे. १८ आर्त-रौद्र ध्यान होय मंद, आव्यो मध्य धर्म आणंद, आठ वरस उणी पूरव कोडि, पंचम गुणठाणे थिति जोडी. १९ हवे आगे साते 'गुणस्थान, एक एक अंतर-मुहुरत मान, पंच प्रमाद वसे जिण ठाम, तेह प्रमत्त छठो गुणधाम. २० स्थविर-कल्प जिन-कल्प आचार, साधे षट आवश्यक सार, उद्यत चोथा चार कषाय, तेण प्रमत्त गुणठाण कहाय. २१ सुधी राखी चित्तसमाधि, धर्मध्यान एकांत आराधी, ज्यां प्रमाद क्रियाविधि नासे, अप्रमत्त सत्तम गुण भासे. २२
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org