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________________ ५१७ धरमसीकृत १४ गुणस्थान स्तवन [धरमसी/धर्मसिंह/धर्मवर्धन खरतरगच्छना विजयहर्षना शिष्य छे. एमनी गुजराती, राजस्थानी, हिंदी भाषानी रास, स्तवन-सझाय वगेरे प्रकारनी घणी कृतिओ मळे छे, जे सं.१७१९थी १७८१नां रचनावर्षो बतावे छे. जुओ जैन गूर्जर कविओ, भा.४, पृ.२८६-९८, भा.५, पृ.४०२-०३ अने भा.६, पृ.४७७ तथा गुजराती साहित्यकोश खं.१ पृ.१९६-९७. आ कृति सं.१७२९मां बाहडमेरमां रचायेली छे अने 'धर्मवर्धन ग्रंथावली' 'रत्नसमुच्चय' 'जैन प्रबोध पुस्तक' वगेरेमा छपायेली छे. - संपा.] सुमति जिणंद सुमति-दातार, वंदु मन-शुद्ध वारोवार, आणी भाव अपार, चौदे गुण-थानक सुविचार; कहिशुं सूत्र अरथ मन धार, पामे जिम भवपार. १ प्रथम मिथ्यात्व कह्या गुणठाणो, बीजो सास्वादन मन आणो, त्रीजी मिश्र वखाणो, चोथो अविरत नाम कहाणो, देशविरति पंचम परिमाणो, छठो प्रमत्त पिछाणो. २ अप्रमत्त सत्तम लहीजे, अठम अपूर्वकरण कहीजे. अनिवृत्ति नाम नवम्म, सूक्ष्मलोभ दशम सुविचार; उपशांत-मोह नाम अग्यारम, क्षीण-मोह बारम्म, ३ तेरम सयोगी गुणधाम, चौदम थयो अयोगी नाम, वरणुं प्रथम विचार, कुगुरू कुदेव कुधर्म वखाणः तेह लक्षण मिथ्यात्व गुणठाणे तेहना पांच प्रकार, ४ ढाल : सफल संसारनी जेह एकांत नय-पक्ष थापी रहे, प्रथम एकांत मिथ्यामति ते कहे, ग्रंथ उथापी थापे कुमत आपणी, कहे विपरीत मिध्यामति ते भणी, ५ जैन शिव देव सह नमे सारिखा, तृतीय विनय मिथ्यामति पारिखा, सूत्र नवि सद्दहे, रहे विकल क्षणे, संशयी नाम मिथ्यात्व चोथो भषो. ६ समझ नहि कांड निज धंध रातो रहे, एह अज्ञान मिथ्यात्व पंचम कहे, एह अनादि अनंत अभव्यने, कहीय अनादि स्थिति अंत-सुं भव्यने. ७ जेम नर खीर घृत खंड जमीने बमे, सरस रस पाई वकि स्वाद केवो गमे, चोथ पंचम छठे छापा चढ़ते पढे, किमाही कषाय कर[बसि] आय पहिले अहे. ८ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002640
Book TitlePrachin Madhyakalin Sahitya Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayant Kothari
PublisherL D Indology Ahmedabad
Publication Year2001
Total Pages762
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size11 MB
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