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माणिक्यसुंदरसूरिकृत नेमीश्वरचरित फागबंध
अद्वैउ अंजनवान शरीर, बेइ गिरूआ गंभीर, ईकु नेमीसरू ए, बीजउ सारंगधरू ए; हरि हरिणाक्षी साथि, स्वामी सिउं जगनाथि, खेलइं खडोखली ए, जलि पडइं उकली ए. ३८ झीलई सुललित अंग, नेमि अनइ श्रीरंग, सींगी जलि भरी ए, रमई अंतेउरी ए; हरि सनकारी गोपी तेहे मिली लाज लोपी, नेमि पाखलि फिरी ए, झमकई नेउरी ए. ३९
श्लोक: नारीनूपुरझंकारैर्यस्य चित्तं न चंचलम्, स श्रीमान् नेमियोगीन्द्रः पुनातु भुवनत्रयं. ४०
फागु
त्रिभुवनपति धरइ शमरस, रमतु नारी मझारि; ते बोलई सुविवेक' 'तूं, एक वयणु अवधारि. ४१ प्रभु ! परिणेवउं मानि-न,' मानिनीमनह वालंभ; तरूणीय जनमन-जीवन, यौवन अतिहिं दुलंभ. ४२
रासु यौवन अतिहिं दुलंभ भणीजइ, खीजइ प्रभु तुम्ह माइ रे' हसीय भणइं ते 'तूं बलि आगलउ, आगलि अम्ह किम जाइ रे ?' ४३ भणइ भुजाई 'भणि अह्मि देवर ! देव रचइं तुम्ह सेव रे, काम न नाम गमइ नवि नारी, सारी एह कुटेव रे. ४४
अलैउ सारी एह कुटेव, टालि-न देवर ! हेव, मानि-न परिणq ए, वली वली विनवू ए; हिव मानेवा ठाम, निहुरईं लाभइ गाम', पीतंबरू कहइ ए, 'तउ अवसर लहइ ए.' ४५ वींटी रही सवि नारि, वलि वलि कहइ मुरारि, कुमर सवे कहईं ए, पगि लागी रहईं ए; मांड मनावीयु नाह, यादव सविहुं वीवाह, त्रिभुवन उत्सवु ए, ऊलट अभिनवु ए. ४६
फागु अभिनव अंगि ऊलट धरि, हरि द्वारिकां पहूत; मागी रायमइ कन्या, धन्या गुणसंजुत्त. ४७ स्वामि-नामि ऊमाहीय सा हीयडइ घण प्रेमि;
नाचती अभिनय सा स[ल?]वइ, वलि वलि नेमि.' ४८ ८. सविवेक. ९ मानिनी.
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