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लोकाशाह अने लोंकामतविषयक काव्यो
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तेजपुंज जां सोहइ भाण, तां खजुआनूं किसिउ पराण, जां हुई चिंतामणिनुं द्याप तां काकरनुं किसिउ प्रताप. १४९ जां सुरगिरितां सरिसव किसिउ, मृगपति आगलि जंबुक जिसि, तिम आगमि जु एहवूं कहिउ, तु बोलवूं तुम्हारूं रहिउं. १५० जिनवरि भाखिउं जिनमत जाणि, लुंकट मत फोकट म वखाणि, जिनमत ए मत अंतर घणउ, सावधान थई सहू को सुणउ . १५१
दूहा
मदि झिरतु मयगल किहां, किहां आरडतूं ऊंट,
पुन्यवंत मानव किहां, किहां अधमाधम खूंट, १५२ राजहंस वायस किहां, भूपति किहां दास, सप्त भूमि मंदिर किहां, किहां उडवले वास. १५३ मधुरा मोदक किहां लवण, किहां सोनूं किहां लोह, किहां सुरतरू किहां कयरडुं, किहां उपशम किहां कोह. १५४ किहां टंकाउलि हार वर, किहां कणयरनी माल, शीतल विमल कमल किहां, किहां दावानल- झाल. १५५ भोगी भिक्षाचर किहां, किहां लहिवूं किहां हाणि, जिनमत लुंकट मत प्रतिईं, एवड अंतर जाणि. १५६ आवई इणि दूसम समइ, जिनमत मानई आज, ते नर पुरूषोत्तम हुसिई, लहिसिइ सिवपुर-राज. १५७
अथ चुपइ
कट मतनुं किसिउ विचार, जे पुण न करइ शौचाचार, शौचविहूणउ श्री सिद्धांत, पढतां गुणतां दोष अनंत. १५८ फगर देखी उंदिर डरई, नीसासा डचका जिम करइ, रात्रिदिवस एहन परि एह, परनिंदा नवि लाभइ छेह. १५९ पातक- भय देखाडई घणउ, बहु आरंभ करइ घर तणु, कूट कपट मायाना धणी, जाते दिनि थासिउ रेवणी. १६० गुरू नवि मानुए अति भलूं, तु तुम्हि किम जाणिउं एतलूं, शास्त्र पढावी कीधी मया, तेह जि गुरूनईं साम्हा थया. १६१ जे लुंकट -मति गाढा ग्रहिया, ते केता भिक्षाचर थया, नवा वेष तसुनवली रीति, नवि बइसइ भविअणनईं चींति. १६२
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