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प्राचीन मध्यकालीन साहित्यसंग्रह
भइ विप्र, होरिषि, धन धन्न, कृपा करू लिउ खपतूं अन्न, यज्ञ भणी झाझा परहूणा, अम्ह मंदिर आव्या छई घणा. १३४ मासखमण केरई पारणइ, गया विप्रनईं घर-बारणइ, सरस गविल विहरावइ पाक, कूर दालि घृत झाझां शाक. १३५ विहरइ मुनिवर खपती खीर, घोल घणूं नई फासू नीर, भाव सहित ईम भिक्षा देइ, वंदइ बंभण भाव धरेइ. १३६ दान पुण्य महिमा विस्तरइ, कुसुमवृष्टि तिहिं सुरवर करइ, ततखिणि विप्र तणई अंगणइ, सोवनवृष्टि हुइ सहू भणइ. १३७ वारकरी मुनि बइठउ जिसि, ब्राम्हण वंदणि आव्या तिसिइ, धर्म तणइ उपदेशिइं करी, प्रतिबोध्या बंभण कूंअरी १३८ हरिकेसी रिषि विहरिउं इम, ऊद्देशिक नवि लागु नींम, श्री उत्तराध्ययन छइ सार, ए सघलु तिहिं करि हिउ विचार. १३९ वीर सामि अतिशय परवरिया, ते नावइ बइसी ऊतरिया, मारगि गंगा नदीप्रवाहि ए अक्षर आवश्यकमांहि. १४० श्री ईनकापूत्र सूरिंद, बइठा बेडी मनि आणंद, लोक तणउ मिलीउ बहू वर्ग, वयरी देव करइ उपसर्ग. १४१ जिहां बइसई सहिगुरूराय, तिहां तिहां बेडी नीची जाइ, गंगा नदी महाजलि भरी, लोके गुरू लांख्या करि धरी. १४२ तिणि अवसर ते सुर प्रतिकूल, पडतां हेठलि धरइ त्रिशूल, सिर वींधाणइ शोणित झिरई, सहिगुरू हीइ विमासण करई. १४३ मझ सिरि लोही खारूं हुसिई, जलना जीव मरण पामिसिई, सविकहइ ऊपरि समता धरइ, शुभ ध्यांनि केवलसिरि वरइ. १४४ बइठा बेडी - ईस्या सुमेध, किम थाई तेहनु निषेध, जमली साखि समयनी देखि, संथारग पयन्नं पेखि. १४५ श्रीमुखि अरथ कहइ अरिहंत, रचइ सूत्र गणधर गुणवंत, प्रतेकबुद्ध नई श्रुतकेवली, दस पूरवधर बोल्या वली. १४६ एहनु भाखिउ आगम होइ, जिनशासनि जयवंतु सोइ, तासु पक्ष मई अंगी कीध, रे कुमती तुम्ह उत्तर दीध. १४७ जे पूछवूं हुइ ते कहु, कांई म अणबोल्या थई रहु, सुगुरू- पसाई त्रिभुवनि सार, जाणूं आगम- अरथविचार. १४८
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