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प्राचीन मध्यकालीन साहित्यसंग्रह हिवै २४ पूर्ण थाइ ते माटें, तवन २ पूर्वीने लीख्या छे.
श्री पार्श्वनाथ प्रभुनें प्रणाम शिर नामीनें त्रिकरण जोगें. श्री पार्श्वनाथ केहवा छे ? आत्मगुणे करी मनोहर छे, अभिरामी छे. परमानंद प्रभुता पामी छे अनंताष्टकमय छे. वली केहवा छे ? कामित – वांछित दाता छ, अने स्व पोतें अकामी छे -- अप्रार्थक
वर्तमान चोवीसमां तुमें त्रेवीसमा छे - दूर कर्या छ त्रीवीस २३ शब्दादिक विषय जणे. चोवीस मोहनीय कर्मनी बंधउदयसत्ता स्थानकथी उपशम गुणठाणे चढ़तें चढतें टाले तेहनो विचार ६ कर्मग्रंथ कर्मपयडी(मांथी) जाणवो. वलि चोवीस गति थिति दंडकरूप ते टाल्या छे जेणे. गति २४ दंडकरूपा -
नेरइया १ सुराइर, पुढवाइ ५ वेदियादओ ३ चेव गप्भय तिरिय १ मणुसा १ मव्यंतर १ जोइसिया १ वेमाणी १.
इति २४ दंडक भ्रमणरूप टाल्या छे, जेहनु आउखुं पंचविस चोकुं छे एतले एक शत वर्षतुं छे. २ ___कुधातु लोह तेहने कंचन करे ते पारस पाषाण छे. यद्यपि जड छे तोहि पण तुम्हांरूं नाम पारस कहेवाइ छे. ए नामनो महिमा छे केवल नाम निक्षेपनो. ३
भावनिक्षेपानें भावें भाव मिलतां आत्मभावे एकपणे मिलतां भेद ते किम रहें, अभेदपणइ थायें. तान तांन मिलें तिहां अंतर न रहे ए लोकनो उखाणो न्याय. ४
परम स्वरूपी पार्थ परम रस-स्युं [परमेसर-स्युं] परस अनुभवप्रीति जिवारे लागें, एकमय थाये, तिवारें दोष - मिथ्यात्वादि संसारीक दोष सर्व टलें अने दृष्टि दर्शन खुलं – निर्मल थाइं. अनोपम अद्भूत प्रधान एह लाभनी भलाइ. ५
ते माटें कुमतिरूप उपाधिरूप कुधातु - मलिन धातु विभाव स्वरूपनें तजीइं, निरूपाधिक पुद्गलिकभावरहित ते गुण ज्ञानादिकनें भजीयें-सेवीयें, अने सोपाधिक सुख पुण्य प्रकृतिजनित सुख ते परमार्थे दुख ज जाणवू. ते पाम्याथी मनमां राजीइं – राचीइं नही. ६
जे पारसथी लोह जात कंचन करे [जात्य कंचन] तेह फरी कुधातु न थाईं. तिम जे परमात्माध्यान-पारसथी जे अनुभव-कंचन थयुं ते शुद्ध स्वरूपें जोवें – निरखें तत्त्वज्ञानें करीनें. ७
हे श्री वामानंदन वामा राणीना पुत्र, चंदनशीतल दर्शन. आकार तथा दर्शन शुद्धि[शुद्ध] समकित जेहनुं विशेषे भासें छे. तेहथी ज्ञाने करी विमलगुणनी प्रभुता वाधे; अने परमानंदविलासलीला पामीजें. ८. इति श्री पार्श्वजिन स्तवन संपूर्ण.
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