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विवेकहर्षकृत हीरविजयसूरि (निर्वाण) रास
२६७ आरंभ आ रीते ज नोंधायो छे.
लालभाई दलपतभाई भारतीय संस्कृति विद्यामंदिरमा भेट सूचिक्रमांक २४७०नी विवेकहर्षकृत 'हीरविजयसूरि रास'नी प्रत मळी छे. पण आश्चर्यनी वात ए छे के समान आरंभअंत धरावती (पण अहींनी पुष्पिका नहीं, प्रत मोडा समयनी जणाय छे) ए कृति आखी लगभग जुदी ज छे. शुं थयुं हशे तेनुं अनुमान करवू मुश्केल छे. - संपा.] __पंडितश्री ५ श्री अमरविजयगणि गुरूभ्यो नम:.
दुहा सरसति बरसति बचनरस, करओ रसना परि बास, जिनपदपंकज सिरि धरि, करुं सुगुरु-गुण-रास. १ धाणधार धुरि देस सिरि पाल्हणपुर प्रगट्ट, सा कुंरा-कुलि चंद्रमा, श्री ओसवंश सुगट्ट. श्री तपगच्छपति जगत्रगुरु हीरविजय सूरिराज; साहि अकब्बर मानिओ, सकलसूरि-सिरिताज. संवत पन्नर आ(त्र्या)सीइ मागसिर नउमि विशुद्ध, माता नाथी जनमिओ हीरजी जगत्र-प्रसिद्ध. ४ संवत पन्नर छन्नुइ वदि कार्तिग बीज सुसाथि, हीरकुमर दीक्षा ग्रहइ श्री विजयदानसूरि हाथि. संवत सोल अठोतरइ देखी गुणनी कोडि, श्री विजयदानसूरि थापिआ पद पंडित-वाचक जोडि. संवत सोल दसोतरई सीरोही नयर मझार, श्री विजयदानसूरीसरइ कीधा निज पटधार. चिरंजीव गुरु हीरजी जिनशासन-शृंगार, शाहि अकब्बर प्रतिबोधिकई जिणि रचि[रवि]तलि रची अमारि. ते व्यतिकर गुण वर्णवा भगति भंभेरइ मोहि, शक्ति निवारउनां सुणुं सु-सरसति तेरी सोहि. ९
राग देशाख । जगत्रपति राजइ रे अकबर शाह सुरग्या[त्रा]न आलमपति राजइ रे, जाके जीआमई बसे हीरविजयसूरि विजयसेन शशि भान जलालदीन रे. १० आण अखंड चिहुं खंड भूमंडलि जसु आखंडलमान, निज भुजदंडि प्रचंड नराधिप खंडि गांड गुमान. जगत्र. ११
नार.
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