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प्राचीन मध्यकालीन साहित्यसंग्रह फलादि सर्वतः समीपवर्ती नरनारी पशुपक्षी जोतीष्चक्राकाशादि अनेक वस्तु प्रतिबिंबित थाय छे, जल जलनी सत्ता छे; जेम मुक्ताफल मणि कांति प्रभादि ज्योतिवंत पदार्थ विषे आपआपणे द्रव्य प्रमाणे सर्वनी सर्व वर्षे जेम रहे तेम जीव विषे, अने ते परम कुटी -- मुक्ति विषे गुरूशिष्यादि व्यवहार नथी. वली बीजो अर्थ जे : संसारावस्था छतां लोक कुटीमा रहेतां सम्यक्त्वोत्पतिसमये उत्पन्न थयेली भावधारानी लहरी पर्याय ते धारा पर्याय यावत् वर्ते तावत् ते धारानो स्वामी एम विचारे छे - कोइ कोईनो गुरूशिष्य नथी. ए व्यवहारनयकथननो शुद्ध निश्चयें अने वली ते परमकुटी - मुक्ति तेहना वासी जे सिद्ध ते रहे छे ‘सदा उदासी' कहेतां न्यारा - सर्व सर्वथी सर्वपणे अने अंतरात्मापणे एकदेशी श्रद्धादृष्टि उदासी रहे छे. परसंयोग बाटक [नाटक?] थकी, त्रणे लोककुटीरचनाथी रहे छे उदास सदा.
अने ते मुक्ति जीवनो आ लोक देखवो ते मध्ये त्रण लोक कुटनी रचना प्रतिभासे छे, अने ते समकितीनो आ लोक देखवो सम्यग ज्ञानदर्शने करी कुटी लोकरूपी तेहनी रचना न्यारो थइ निरखे ने तेथी सुखरूप परिणमे छे, अथवा आ लोक देखवामां कुटी कहेतां कुडी भास छे. लोक षट्द्रव्य तेनी पर्यायरचना सिद्धने सर्वथी अंतरात्मने देश, देशीक, देश, अनेकविधि.
तेथी त्रण लोकनो आ लोक देखवो तेमां षट्द्रव्य नाटकने देखवे त्रण काल विषे सुखी छे ते परम कुटी – मुक्तिवासी जीव अने जे अंतरात्मापणे वर्ते छे समकिती जीव ते त्रण लोक मध्ये रहेतां थका ज अंतरदृष्टि सर्व पर ज्ञेयथी भिन्न भावे निजात्मा प्रति, तेथी संसार दुःख व्यापतो नथी ते माटे अंतरात्मापणे त्रण काल विषे त्रणे लोक सुखरूप छे. (१०)
दुहा : दशमी लोकभावना विषे लोक षद्रव्य रचना चौद राजलोकने विषे समकितीए जिनवचने जाणी तिहां षट्द्रव्यरचना स्वभाव, विभाव, लक्षण, धर्म जाण्यां, ते मध्ये निज स्वभाव लक्षणधर्म उपादेय जाणी भावे छे. बहिरात्मा - जीव परपुद्गलधर्मने आत्मिक धर्म जाणे छे ते निर्णय करी न्यारो देखाडे छे. यद्यपि उपचरित व्यवहारनये ए क्रियारूप पुद्गल धर्मसाधनरूप छे, तथापि शुद्ध निश्चयनयापेक्षाए हेय. अग्यारमी धर्मभावना कहे छे.
व्यवहारधर्मी जीव व्यवहारक्रियाधर्म उपदेशविधि करावे छे अने आपण - पोतानी मेळे करे छे, पण शुद्ध ज्ञानोपयोगरहित एकल क्रिया ए धर्म न होय, श्रुत चारित्ररूप धर्म ते व्यवहारधर्म छे अने त्रीजो 'वत्थुसहावो धम्मो' ए उत्तराध्ययने उक्त वस्तुस्वभावधर्म ते निश्चयधर्म जाणवा योग्य उपादेय ते हे आत्मा ! निश्चय स्वभाव जे
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