________________
२९१
सोमकृत
मेघजी-हीरजी संवादना सवैया
[आ कृति 'जैन गूर्जर कविओ' के 'गुजराती साहित्यकोश खं.१'मां नोंधायेली नथी. सोम ते हीरविजय आदि २४ सवैयाना कर्ता ने हीरविजयसूरिना शिष्य सोमविजय (जुओ गुजराती साहित्यकोश खं.१, पृ.४७५) होई शके. आ सवैया पण ए २४ सवैया अंतर्गत होई शके. - संपा.]
लुंकागछनायक मेघ कहैं, गुरु हीर ! तपगछ लीजियजी, तM पद में हि आचार्य को, हीर ! देइ दिख्या शिष्य कीजयजी, नंदीप्रत्यमा जिनभवनमैं हीर! रशना-डंड दीजीयेंजी, सखाई सशिष्य करें विनती, सोम हीरजी नाउ न कीजीयेंजी. १ हीर कहै, सूंनीयै मेघजी ! तुम्ह येसै तपगछ कैसें सहोगे, दी0 दीख्या फिरके गुरके, कर्यमयोग खरो खट वहोगे, उह्यां हिं तुह्मारे आचारज्यको पद, ईयां शिष्य के शिष्य होये रहोगे, सोम कहैं नंदने जिनकुं व[उ]न्यकुं ऋषजी तुम तारक होगे. २ लुक करो जुं करि मेघजी ऋष ओ अपनो गच्छनायक ताथै, सिद्धांतमैं मेघ कहिं प्रतिमा, तब होतें गितारथ पंडित साथै, शतावीस शिष्य अने मेघजी ऋष्य लेइ दिख्या फेर हीरके हाथै, आयो आचारय मेघ न पामै, तब सल्य परी सोम लुंकाने माथें. ३ कहा कहं कुंमति मत कि, जिनकी प्रतिमा महा मूढ न मानें, ठोर ही ठोर लिखि प्रतिमा, होम किर्ग पेरि सिद्धांतके पार्ने, कि... हैं भाव भवि प्रतिमा, नन्यहे प्रतिमा चंद सूर न मानें, लोपे गुरूदेव तजि प्रतिमा, गच्छ दुर भये सोम दैवके राने. ४ जिनमंदिरकुं ज आरंभ कहो, वो उपासरिं पत्थर काहैं धरो रे, सामि जिमाउ समहिई करो, उर काहेकुं देसमें व्या[ब्या]र फरो रे, एक पांणीकै बिंद असंख जीआ, तब ओ नदीआं तुम क्यांइ तरो रे, पोकारो दया दया सोम कहैं, तुह्म पोथीके विंगण काहैं करो रे. ५
[जैनयुग, अषाड-श्रावण १९८६, पृ.४८२]
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org