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मानविजयगणिकृत सात नयनो रास
अथ सप्त नय दृष्टांत कथनं. ढाल ४ : राग मारूणी, रायपद मरथ
ए देशी
ए नय सप्तक हुई विशुद्ध यथाक्रमे रे प्रस्थकवसति प्रदेश; दृष्टां करी भावो निज अनुभव करी रे निसुणी शास्त्रनो लेश. ३७ भविजन सांभळोजी नयसमुदाय, आयती समुदयनो कारको रे. आंचली वनगम दारू छेदन छोलन कोरवे रे, मृदु कारणे [करइ] उदभेद; एह स्थले नैगम व्यवहारह नय तणो रे, सुद्ध यर्थोत्तर भेद भ० ३८ संग्रहचित मित[निच्च] धान्यादिक भृतनें कहे रे, नहीं न्यूनाधिक रत्ति; मान्य[न] मेयो भयने ऋजुसूत्र कहे नही रे, एके मानो [व] पत्ति भ० ३९ प्रस्थक भावे परिणत आतम प्रस्थको रे, शब्दादिक मत एह; प्रस्थक ज्ञायक प्रस्थक करतृक ज्ञानथी रे, नही अतिरिक्त को तेह. भ० ४० लोक प्रभृति गृह कोण लगें निवसन कहे रे, नयनेगम-व्यवहार; संग्रह संथारा वृत खेत्र प्रदेशे रे, अन्य सकल उपचार. भ० ४१ जे आकाशप्रदेशे स्वयं अवगाढ छे रे, ऋजुसूत्र माने तिहांय; तेह पण वर्तमान सामायिकी जाणवी रे, प्रतिख्यण थिरता किहांय. भ० ४२ आतमभावे आतमवसति न परद्रव्ये रे, इम शब्दादिक भाव; विण संबंधे नहि अन्यनो अन्य स्थले रे, आधाराधेय भाव. भ० ४३ पंचास्तिकायने देश ए छनो प्रदेश छे रे, इम नैगम कहणार; देश विना पंचनो हुई कहे संग्रहनये रे, पणविह इति व्यवहार. भ० ४४ प्रत्येकें पणविधनी हुइ प्रसंजनो रे, इति ऋजुसूत्र कहेय; ते माटे पंचनो भजनाइं भाखवो रे, हवे शब्द वदेय. भ० ४५ तेहने विषे तथा तेह ज तेहनो प्रदेशको रे, अन्यथा न हुइ निर्देश; समभिरूढ वदे हुइ सप्तमी भेदिका रे, तेह ज तेहनो प्रदेश. भ० ४६ एवंभूत मते सवि द्रव्य अखंडका रे, नहि देशादि प्रकार;
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इम दृष्टांत घटादिक द्रव्ये भावता रे, हुइ सुमतिविस्तार. भ० ४७
इति सप्त नय दृष्टांत दर्शनं.
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