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________________ ६२६ प्राचीन मध्यकालीन साहित्यसंग्रह मृगनयनी ! मन सहचरी ! संसारे रे नीचसंगति टाल के, उंच नीच संगति तणां, फल उपर रे दृष्टांत निहाल के. उंच-प्रसंगी सुख लहे. वायससंगी हंसने नृप मारी रे कहे उज्वल काक के, हंस कहे हुं हंसलो, मुज प्रगट्या रे नीचसंग विपाक के. उंच. भीलनी पल्लिने परिसरे, नृप उभो रे शीतल तरूछांय के, उंच तरू एक पांजरूं, शुक भणीयो रे रहेतो ते मांय के. उंच. उभो रणमा एकलो, भूषणयुत नृप पकडो एणी वेळा के, धाई आवा सबरो मळी, शुक बोले रे थाओ लक्ष्मी भेळा के. उंच० सांभळी नाठो नरपति, भय चित्ते रे रण मांहे तेह के, आश्रम तापसनां लही, जइ पेठो रे कुलपतिने गेह के. उंच० त्यां पण पोपट पांजरे, कहे, उठो रे तापसशिरदार ! के, आपणे पुण्ये आवियो, नृप एकलो रे कुलपतिने द्वार के. उंच० आ अवसर भक्ति करो, दियो आसन रे पंखा जलपान के, मरण करी फरी अवतरे, गयो अवसर के नावे निदान के. उंच० सांभळी सन्मुख मुनिवरा, आवी तेडी रे लाव्या बहुमान के, भक्ति करे जल-फल तणी, तापसिणी रे गावे गीतगान के. उंच० सैन्य पुंठे आवी मळ्युं, नृप पूछे रे कुलपतिने एम के, सबरकुले शुक पेखीयो, आ शुकमां रे वचनांतर केम के. उंच. तव पंजर शुक बोलियो, राय ! सुणिये रे एक वनतरू जोय के, कीर युगल माले वसे, तस. अंगज रे अमे बांधव कोय के. उंच. मातपिता-शुं बेउ जणा, अमे रमतां रे तरू सरोवरपाळ के. (वीरला) विरला परकारजकरा, विरला पाले नेह; विरला गुण कीधो ग्रहे, परदुःखे दुःखिया जेह. आ भव दुःख न पामियो, परदुःखहरण न धात; दुःख देखी दुःख नवि धरे, ते आगळ शी वात ? (विधिनी विचित्रता) रत्न कलंकित कीध, जब विधि सृष्टि कियो री, कमले कंटक कीध, चंद्र कलंक दियो री, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002640
Book TitlePrachin Madhyakalin Sahitya Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayant Kothari
PublisherL D Indology Ahmedabad
Publication Year2001
Total Pages762
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size11 MB
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