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बे नंदिषेण सझाय
१. चतुरकृत [आ कृति 'जैन गूर्जर कविओ' के 'गुजराती साहित्यकोश'मां नोंधायेली नथी. कविपरिचय पण प्राप्त नथी. - संपा.]
मुनिवर महीअल विचरे एकलो, नंदिषेण निरूपम रूपे अति भलो.
त्रुटक
अति भलो रूपें जिसो मनमथ, माननीमन मोहए, तप तपें दुकर छठ अठम, चतुर चारित्र सोहए. एक वार मुनिवर आहार लेवा नयर माहें संचरे, तव वेस्यामंदिर करम-वसें जइ धर्मलाभ ईम उचरे. १ देखी मुनिवर उभो आंगणे, वलतुं वेसा उत्तर एम भणे, इम भणे उतर वेशवनिता, अरथ अम घरि चाहिए, रिषि वरासें तुमे आव्या, इम विमासो नई हीयें, अभिमान आणी तरण ताणी, खंड कर जव नाखए, वरसंति सोवन बार कोडि रयण राशि असंख ए. २ वलतो वेगे ततखीण चालीउ, प्रमदा प्रेमें करयल झालीउ. करकमल झाली रही रामा, नाह ! नेह नीवाहीए, तमें भमरनी परें भोग भोगवो, रमो रंगई मालीइं, तिणे वेण वेद्धों रहों रसभर, भर्म भूलो भामिनी, भोगफल कर्म उदय आवों, कहि सासनसामनि. ३ दस दस दिनका नित नर बुझवें, देसनावाणी नरनें रीझवें, रीझवें देशनावाणि मीठी राग वेरागीपणे, नंदिषेण निश्चल नियम पालें, वेष राखें थापणे, एक वार दसमों नर न बूझें, वार लागी अति घणी, तव वेशवनिता वीनवे प्रभु ! उठो घर भोजन भणी. ४ जिहां लगी दसमो नर बूझे नही, तां लगि जमवु निश्चल ए नहि, ए नही निश्चल हुं न जमुं, जां न बुझें ए वली, तेह थानकि तुमे दसमा, कहिं नारी आकुली.
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