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दीपविजयकृत सुरतनी गझल
माली फिरत हे ले फूल, भोगी लेत हे दे मूल, भांगां घूटते भंगीक्, अमली अमलके रंगीक्. ५७ बेठे सीख कंसाराक्, घाटी घडत सोनाराक्, गुंडे बहोत हे दरजीक्. सीवें आपकी मरजीक्. ५८ जडिये जडत हे बहो नंग, मोती पना पांचौ रंग, चूड़े चीरते दंतार, चूडियां पेंहेंरती बहो नार. ५९ एंसे चोरासी बाजार, बणिये करत हे व्यापार, फिर पारसी बहो लोक, वणजां करत दमडे रोक. ६० यौं सब लोक हे सुखियेक्, नहि कोई बातसें दुखियेक्, सेहेरमें अंगरेजी राज, पावत लोक सब सुखसाज. ६१ पुरमें बहोत हे कमठांन, चांदनी पोहोचती असमान, उंची हवेल्यां भारीक, बैठे गोख नरनारीक्. ६२
आं बेहेंचराके थान, आलम करत हे सनमान, विषु सिवांका परसाद, वामें गाजे गुहिरा नाद. ६३ के जैनके प्रासाद, देखत होत हे आल्हाद, सूरतमंडना श्री पास, फिरके धर्म देवल पास. ६४ संखेसरा श्री जिनराज, उबरवाडि श्री महराज, गोडे पास जिनवरदेव, सारें भक्तजन प्रभु सेव. ६५ सांतीनाथका देहराक्, मार्नु सिवपुरीसेंराक्, आदीनाथ जिनवर वीर, तारे भवां-सागरतीर. ६६ चिंगी पारसनाथ, मेलें सिवपुरांको साथ, देवल बडें बेहेंतालीस, वंदे सुरनरांका ईस. ६७ विजयादेवका आलाक्, उंचा गोख हे मालाक्, आलय फेर विजयानंद, सारछ खरतर वृंद. ६८ लोढी वडी हे पोसाल, परगट धरमकी परनाल, अंचलगछ पासचंदसूर, कम्मल कता कत प्रभसूर, ६९ आज पुने लक्क सब सब गछके सककेक्, इसे गछ चोरासीक्, अपने गछ-मत-वासीक्. ७० फिरके संवेगीके साध, आगम वांचते निरूपाध, साधु साधते सिवपंथ, पढते तत्त्वके बहु ग्रंथ. ७१
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