________________
प्राचीन जैन कविओनां वसंतवर्णन
१५९ चैत धरूं किम धीर, अ. विरहव्यथा तन उपजी, सा. कोइ न एसो सेण, अ० आणि मिलावे नेमजी. सा. ९
५१. लब्धिवर्धनकृत 'नेमनाथ बारमास सवैया'मांथी [जैन गूर्जर कविओ' मां आनी नोंध नथी. 'गुजराती साहित्यकोश खं.१'मां आ संदर्भने आधारे नोंध छे (पृ.३७९). - संपा.]
सवैया बढी अति राति किउंही न विहाति, सुजन संघाति विना, सुणि माइ, परइ परतक्ष नुसार के लक्ष, पजारत वृक्ष सुकी वनराइ, सुहात न सीत नही उहू मीत, करिं जिम चीत घरंगणि आइ, राजूल अनूप सूहावति धूप, मोसे मनि माह महा दुखदाइ. ७ सबेहू सखी संगि मिली मनरंगि, वजावति चंग पढंति धमारो, आयो री वसंत विनोद अनंत, राजूमति कंत मोहि मत छारो, मादल ताल वजावति बाल, झखइ अति आल हो होरी पजारो.
(पा. झखंति अली सबहार पजारो,) (अहो) फागुणमें फरि प्रेम बढई जू सखी, जो मिले यदि (नेम) शिवादेको
बारो. ८ कुहकइ कोकिला मधुर ध्वनि-स्यु, सुणि नाद विनोद हों हियरो, सहकार उदार फूलि वनमझि, मनोहर वायू वहि शियरो, अलिनी अति आलि करंति सुभालि, वदन विशाल भयो पीयरो, चित्त चैतक मासि मिलइ यदि नेम, महासुख प्रेम लहे जीयरो. ९
___ [जैनयुग, फागण १९८३, पृ.३०६-१९ तथा
महा-फागण १९८४, पृ.२०१-१२]
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org