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________________ यशोविजयगणिकृत १०५/१०१ बोल ४८३ ज कीडी प्रमुख जीव ओसरे अथवा ओसर्या ज होय पण केवळीनी क्रियाए प्रेरी क्रिया न करे, जे माटे एम कहेतां जीवाकुळ भूमि देखी केवळीने उल्लंघनादि व्यापार पन्नवनासूत्रमा कह्यो छे ते न मिले तथा वस्त्रप्रतिलेखना पण न मिले. ८५ ___ 'अभयदयाणं' ए सूत्रनी मेळे भगवंतना शरीरथी जीवने सर्वथा भय न उपजे' एवं कहे छे ते न मिले, जे माटे भगवंत वस्त्रादिकथी जीव अलगा मूके तेने भय विना अपसरण न संभवे तथा ‘अभयदयाणं' ए वचने केवळीना शरीरथी कोइने भय न उपजे एवं कल्पीए तो ‘मन्ता मतिमं अभयं विदित्ता' इत्यादिक सूत्रनी मेळे यतिमात्रना शरीरथी जीवने भय उपजवो न घटे. ८६ श्री वर्धमानने देखी हाली नाठो त्यां कोइ एम कल्पना करे छे जे 'तिहां हालीना योग कारण पण भगवंतना योग कारण नहीं' ते अति खोटुं, जे माटे 'भगवतं दद्रुण धमधमेइ' एवं व्यवहारचूर्णिमां कर्तुं छे तेने अनुसारे भगवंतना योग ज तिहां कारण जणाय छे तथा अन्यकर्तृक भय १३मे गुणठाणे होय तो १४मा गुणठाणानी परे अन्यकर्तृक हिंसा पण होवी जोईए ते तो स्वमतविरुद्ध. ८७ ___'सव्वजीयाणमहिंसं' इत्यादिक सूत्रनी मेळे जे केवळीने अवश्यभाविनी हिंसा उथापे छे तेने मते 'हिंसाइ दोससुन्ना' इत्यादिक सूत्रनी मेळे सामान्य साधुने पण ते उथापी जोईए. ८८ - 'जळचारणादिक लब्धिमंत यतिने जळादिकमां चालतां जलादिक जीवनो घात जो न होय तो सर्व लब्धिसंपन्न केवळीने ते केम होय' एवं कहे छे ते न घटे, जे माटे लब्धिफळ सर्व केवळीने छे, तो पण लब्धिप्रयोग नथी. ८९ । __'घाति कर्मक्षयथी उपनी जीवरक्षाहेतु लब्धि प्रयुंज्या विना ज केवळीने होय' एवं माने छे तेने मते १४मे गुणठाणे मशकादिकर्तृक मशकादिवध मान्या छे ते पण न मिले, नहीं तो १३मे गुणठाणे पण तेवो ते मान्यो जोइए. ९० 'द्रव्यहिंसाए केवलीने १८ दोषरहितपणुं न घटे' एवं कहे छे तेहने मते द्रव्यपरिग्रह छतां [इछतां] पण १८ दोषरहितपणुं न मिले. ९१ _ 'प्राणातिपात मृषावादादिक छद्मस्थलिंग मोहनीय अनाभोगमा एके विना न होय ते माटे १२मे गुणठाणे मृषाभाषा कर्मग्रंथादिकमां कही छे ते संभावनारूढ जाणवी' एवं कहे छे तेने पूछवं, जे द्रव्यभाव विना संभावनारूढ त्रीजो किहां कह्यो छे ? काळशूकरिकने कल्पित हिंसानी पेरे ऐ संभावनारूढ मृषावाद लेवो एवं लख्युं छे तेने अनुसारे तो अंतरंग भावमृषावाद ज १२मे गुणठाणे आवे. ९२ 'प्रतिलेखना प्रमार्जनादिक क्रिया क्षुद्रजंतुभयोत्पादकपणे अपवादकल्प कहीए ते Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002640
Book TitlePrachin Madhyakalin Sahitya Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayant Kothari
PublisherL D Indology Ahmedabad
Publication Year2001
Total Pages762
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size11 MB
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