SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 497
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ४८२ प्राचीन मध्यकालीन साहित्यसंग्रह इत्यादिक तथा आरंभादिक त्रण शब्दे एक योगनो अर्थ ए पण संभवे इत्यादि विचारवं. ७९ 'तस्मात् . [तत्साक्षाज्जीवघातलक्षण आरंभो नांतक्रियाप्रतिबन्धकस्तदभावेऽन्तक्रियाया अभणनात् प्रत्युताऽन्निकापुत्राचार्यगजसुकुमालादि-दृष्टान्ते न सत्यामपि जीवविराधनायां केवलज्ञानान्तक्रिययोर्जायमानत्वात् कुतस्तत्प्रतिबंधकत्वशंकापि' एवं सर्वज्ञशतकमां लख्यं छे ते प्रगट स्वमतविरुद्ध. ८० शैलेश्यवस्थायां मशकादीनां कायसंस्पर्शेन प्राणत्यागेऽपि पञ्चधोपादानकारण योगाभावान्नास्ति बन्ध: उपशान्तक्षीणमोहसयोगिनां स्थितिनिमित्त कषायाभावात्सामयिक' इत्यादि आचारांग सूत्रनी वृत्तिमां कर्तुं छे के 'सेलेसि पडिवन्नस्स जे सत्ता फरिसं पप्प उद्दायंति मसगादी, तत्थ कम्मबंधो णत्थि सजोगिस्स कम्मबंधो दो समया' एवं आचारांग सूत्रनी चूर्णिमां कडं छे तिहां चउदमे गुणठाणे योग नथी, ते माटे तिहां केवलिकर्तृक मशकादिवध न होय. पण मशकादिकर्तृक ज होय, तद्गतोपादान कर्मबंधकार्यकारणभावप्रपंचने अर्थे ए ग्रंथ छे' एवी कल्पना कहे छे ते खोटी, जे माटे सामान्यथी साधुने अवश्यभावि जीवघातने अधिकारे ज ए ग्रंथ चाल्यो छे तथा चौदमे गुणठाणे मशकादिकर्तृक ज मशकादिघात कहीए, तो पहेला पण तेवो ज ते होय, युक्ति सरखी छे. ते माटे मोहनीय कर्म होय तिहां सुधी जीवघातकर्ता कहीए ए वचन पण प्रामाणिक नहीं, जे माटे प्रमादि ज प्राणातिपातकर्ता कह्यो छे, इत्यादिक इहां घणुं विचारवं. ८१ 'प्राये असंभवी, कदाचित् संभवे ते २ अवश्यभावि कहीए एवो द्रव्यवध [जीवघात] अनाभोगे छद्मस्थ संयतने होय पण केवळीने न होय' एयूँ कहे छे ते न घटे, जे माटे अनभिमतपणे पण अवर्जनीय ते अवश्यभावी कहीए तेवो द्रव्यवध अनाभोग विना पण संभवे, जेम यतिने नदी उतरतां. ८२ 'केवळीना योग ज जीवरक्षानुं कारण' एवं कहे छे तेना मते चौदमे गुणठाणे जीवरक्षा कारणयोग गया, ते माटे हीनपणुं थयुं जोइए. ८३ 'केवळीने बादर वायुकाय लागे ते वारे तथा नदी उतरतां अवश्यभाविनी जीवविराधना थाय तिहां जे एवं कल्पे छे, 'बादरवायुकाय अचित्त ज केवळीने लागे तथा नदी उतरतां केवळीने जळ अचित्तपणे ज परिणमे' तिहां कोई प्रमाण नथी, केवळीयोगनो ज एवो अतिशय कहीए तो उल्लंघन, प्रलंघन, प्रतिलेखनादि व्यापारनुं निरर्थकपणुं थाय. ८४ एणे ज करी ए कल्पना निषेधी जे केवळी गमनादिपरिणत होय ते वारे आपे Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002640
Book TitlePrachin Madhyakalin Sahitya Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayant Kothari
PublisherL D Indology Ahmedabad
Publication Year2001
Total Pages762
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy