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रत्नमंडनगणिकृत रंगसागर नेमि फाग
(देवसुंदरसूरिना शिष्य सोमसुंदरसूरि हता. तेओ वि. सं. पंदरमा शतकमां थया. तेमनो जन्म १४३० माध वदि १४ शुक्र, दीक्षा १४३७, वाचकपद १४५०, सूरिपद १४५७, स्वर्गवास १४९९. तेमणे स्तोत्रादि अनेक ग्रंथ लख्या छे अने केटलाक पर बालावबोध कर्या छे. तेमनो सर्व इतिहास ‘सोमसौभाग्य' काव्य के जे भषांतर सहित प्रसिद्ध थयेल छे तेमांथी मळी आवे छे.
आ कृति पंदरमा सैकानी भाषानो सुंदर नमूनो पूरो पाडे छे. आ कृतिनी एक प्रति मोरबीना भंडारमाथी त्यांना संघवी कानजीभाई पासेथी मळी आवी छे. ते माटे तेमनो उपकार मानवामां आवे छे अने ते जेम छे तेम अत्र मूकवामां आवी छे. बीजी प्रतिओना अभावे आमां जे अशुद्धता रही होय तेनुं संशोधन थई शक्युं नथी; परंतु कोई स्थळे बीजी प्रतो मळी आवशे तो शुद्ध संस्करण थई शकशे. अत्यारे तो आटलाथी संतोष मानवानो छे. कर्ताए क्यांकक्यांक संस्कृत-प्राकृत पद्या मूकेल छे. भाषाशास्त्रीने आ रचना अति उपयोगी नीवडशे. प्रतिनो लेखनकाळ रा. मनसुखलाल किरतचंद महेता वि.सं. १६मा शतकनी आसपास होवानुं माने छे. प्रतनां पत्र चार छे. तेनी जूनी लिपि वगेरे जोतां प्राचीन प्रत लागे छे.)
[वस्तुत: आ कृति रत्नमंडनगणिनी छे. 'जैन गूर्जर कविओ'नी प्रथम आवृत्तिमा पहेला (भा.१ पृ.३२-३३) आ कृति सोमसुंदरसूरिने नामे मूकी पछी (भा.३ पृ.४३९-४१) रत्नमंडनगणिने नामे मूकी छे. त्यां पुष्पिकामां 'श्री कवीश्वरशिरोरत्न रत्नमंडनगणिना कृतः फाग: समाप्त:' एवो स्पष्ट निर्देश मळे छे.
त्यां उद्धृत थयेल बीजा खंडनो अंतिम श्लोक, जीजा खंडनो आरंभनो श्लोक तथा अंतनो श्लोक 'श्री जैन श्वेताम्बर कोन्फरन्स हेरल्ड' मां छपायेला पाठमां नथी ते नवाई लागे छे, केमके देशाईने हस्तप्रत तो एक ज मोरबी भंडारनी मळेली छे. उपरांत, 'जैन गूर्जर कविओ'मां बीजा खंडना अंतिम श्लोकनो क्रमांक ४१ आपवामां आव्यो छे, ज्यारे 'हेरल्ड'ना पाठमां प्राप्त अंतिम श्लोकनो क्रमांक ४४ छे, जोके एनो क्रमांक ४०मो गणवो पडे एवी स्थिति छे. ए ज रीते, 'जैन गूर्जर कविओ' मां त्रीजा खंडना अंतिम श्लोकनो क्रमांक ३४ छे, ज्यारे 'हेरल्ड' मां प्राप्त अंतिम श्लोकनो क्रमांक (आरंभमां एक श्लोक उमेराया पछी पण) ३८ छे. आम केम बन्युं छे ते कहेवं मुश्केल छे.
अहीं 'जैन गूर्जर कविओ' माथी प्राप्त थयेला वधाराना अंशो उमेरी लीधा छे.
रत्नमंडनगणिनी गुरुपरंपरा बे प्रकारनी मळे छे - सोमसुंदरसूरि-साधुराज-नंदिरत्नशिष्य (जैन गूर्जर कविओ) तथा रत्नशेखर-नंदिरत्नशिष्य (जैन साहित्यनो संक्षिप्त इतिहास, फकरो ७५२; जैन संस्कृत साहित्यनो इतिहास, भा.२, पृ.१७२).
उपरांत केटलीक कृतिओ परत्वे रत्नमंदिर अने रत्नमंडन ए बे नामोनो गोटाळो पण
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