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________________ ८२ प्राचीन मध्यकालीन साहित्यसंग्रह वालमजी ! आंकणी० वालमजी ! वालमजी ! वालमजी ! वालमजी ! ससनेहे सुख एक मनमां कूडा मोहडे रुडा बोले रे, तेह सारसो नेह करे ते मुर्ख तोले रे, तुमे तो ससनेही डंस मुकी हवे आवो रे, ते मनोहर कांमक्रीडा बहु सुख पावो रे, तुं मुझ विरहे करी बीहतो स्वामीसार रे, अति गनवेतां (?) अलगो करतो हार रे, ते मुझ मूकी गयो स्नेह विसारी किहां रे, हवे स्नेह धरीने वहिला आवो इहां रे, रंगरसभर रमतां जे थइ सुखनी वात रे, हवे संभारतां [ते] बाले साते धात रे, परदेशी पंथे जे चाल्या ते आया रे, पण माहरा जीवन- प्राण- आधार ! तुं नाया रे, हवे वेगे पधारो, आतम ठारो माहरो रे, दर्शन वांछु, प्रभु ! तुझने वाहलो ताहरो रे, हवे चंद्रविजय पण कहे स्थूलभद्रने सार रे, वालमजी ! कोशा इम विनवे, आयो[आवो ] भुवन मझार रे, वालमजी ! ४५ Jain Education International वालमजी ! ४२ वालमजी ! वालमजी ! वालमजी ! वालमजी ! ४३ वालमजी ! वालमजी ! वालमजी ! १० : ढाल प्यारो प्यारो करती ए देशी आव्या हे आसाढ उदारा, जिहां मेघ करे जलधारा, जिहां मोर करे किंगारा, जे सुललित जनने प्यारा. हो लाल. ४६ मोहन मन वसीओ. आंकणी० For Private & Personal Use Only वालमजी ! ४४ वालमजी ! वालमजी ! तव आया थुलिभद्र अणगारा, कोशा मन हरख अपारा, जे जाणे हो जानी उदारा, वुठा दूध साकर जलधारा हो लाल. मो० ४७ कोशाए आपी चित्रशाला, तिहां रह्या चोमास रसाला, हवे कोशा हो विनवे उदारा, सांभल तुं विनति, प्यारा! हो लाल. मो० ४८ तुं भोगवि मुझ-स्युं भोगा, जेम जाय सवे मुझ रोगा, जेम हरख होवे मिटे शोगा, साबास दीइ मुझ लोगा. हो लाल. मो० ४९. सुणो जीवन- प्राण- आधारा !, भोगवे [ वो ] भोग उदारा, ए कुत्सित वस्त्र उतारो, चंद्रविजय कहे, कोशा तारो हो लाल. मो० ५० www.jainelibrary.org
SR No.002640
Book TitlePrachin Madhyakalin Sahitya Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayant Kothari
PublisherL D Indology Ahmedabad
Publication Year2001
Total Pages762
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size11 MB
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