SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 648
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ जैन सुभाषित संग्रह (प्रथम ग्रासे मक्षिकापात ) (योगी) आजथी मांड्यो आगळ केम निवहाय ? प्रथम ज कवले मक्षिका, ते भोजन केम खवाय ? Jain Education International हम किनहिके राखे न रहे. कोण पेट हमारा भरहे रे; हम पंछिन किनहिके स्नेहि, मनमें महेर नही केही. योगी भोगी केही सगाई, हमसें क्यों प्रित लगाइ; हम परदेशी प्राहुण लोगा, साधे फिरे योगिका योगा. योगी किनके न सुणे मित्ता, योगी निस्पृही अणभित्ता; अवधु योगी की आस्या कीजे, पण योगीका अंत न लीजे. योगी भला जोई रहे नित्य रमता, धरे योगी न किन-शुं ममता; मात पिता को दिया जो छेहा, तो तुझ-शुं क्या करे नेहा. नहि परवाह किसीकी हमको, फिर बहोत कहुं क्या तुमको ? (गुणवंत) जे गुणीजन गुणीने वश पडियां, ते तो नंग जेम हीरे जडीयां; रसनी रीझ ने सुगुणनी वातो, अमीय समाणी ते विख्यातो . गुणवंतने सहु आदर आपे, गुणथी कुपक घटजल थापे; गुणियलने सेवे नर अमरा, जिम गुणलीना पंकज भमरा. एक गुणे अवगुण बहु ढंके, जेम फणिपति मणि पहोतो डंके; जे गुणियलनो गुण नवि जाणे, तो तेहनुं जीवित अप्रमाणे. (अवगुण उपर गुण करनार) चाकर चूके चाकरी, पण स्वामी न चूके वाच, अवगुण उपर गुण करे, ते मणि, बीजा काच. कृष्णागर बाळ्यो थको, स्हामुं दीये सुवास, कोस जो नाखिये नीरमां, तो पण जल दीये तास. केसरने घसतां थकी, बमणो दाखे रंग, सोनाने परजाळीए, अतिही दिपावे अंग. इक्षु पिले जो यंत्रमां, तो पण रस देअंत, तेम निहेजा उपरे, कदीही न कोपे कंत. For Private & Personal Use Only ६३३ www.jainelibrary.org
SR No.002640
Book TitlePrachin Madhyakalin Sahitya Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayant Kothari
PublisherL D Indology Ahmedabad
Publication Year2001
Total Pages762
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy