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________________ १०२ प्राचीन मध्यकालीन साहित्यसंग्रह मोहन, ए दीवालीए, बाली मनमथे काय; कंत तणी परि तेह ज, ए दुख केहवो न जाइ. ६२ भूषण दुषण पर गमें, नवि गमें सहीयर-साथ; विरह-दावानल दाझतां, वालम ! देजे रे हाथ. ६३ सासरे जावे रे सुंदरी, हरखें प्रीतम हेज; घरणी रे महियल पदमणी, नित में निज सेज. ६४ अतर चंदन अरगजें, परिमल महेके रे तन; संध-५ भरी सुंदरी, देखतां नवि रहे मन. ६५ दुहा नावतां नाहले आस भागी, विरहणी दावानल देह लागी; वास मनमथ जोवन जीपें, मेंन नकवेशरे कीर दीपे. ६६ १२ ढाल कार्तिक माति रे कामनी, दांमनीने अणुहार; मदमाती प्रिउ साथी, राति अंग उदार. ६७ अनंग खेलावती गीत के, गाती भेलती अंग; एक करे केलि सारखि, कां तुं तजे रे सुचंग ? ६८ शशिवयणि मृगानयणी, सोवन वरण शरीर; सा करमांणी देहडी, जिम मृग वागे रे तीर. ६९ जिम पंथीजन जल विना, तापे रे सूके रे कंठ; तिम मुझ वालिम ! तुझ विना, मयण संतावे उलंट. ७० इम न किजे रे वाल्हा ! वाल्हा शुं किशो वाद ? कांमरसें रस चाखो रे, राखो दूरि विषाद. ७१ आवज्यो शिवनें रे मंदिरे, सुंदर मिलस्ये रे दोर; एहवो संदेसो नेमने, राजूल शुणायो रे सोर. ७२ दुहा विरहनी वेदना सब टाली, दंपति ते अविचल प्रीत पाली; संजोग थया ने विजोग भागा, अरीअण आपथी पाय लागा. ७३ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002640
Book TitlePrachin Madhyakalin Sahitya Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayant Kothari
PublisherL D Indology Ahmedabad
Publication Year2001
Total Pages762
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size11 MB
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