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________________ ४७८ प्राचीन मध्यकालीन साहित्यसंग्रह गुणठाणे अप्रतिसेवीपणुं तथा सूत्रचारीपणुं घटे. ५६ 'गर्हणीय पाप मोहनीयमूळ; ते उपशान्तमोहने ज होय अने अगहणीय पाप अनाभोग मूळ आश्रवछायारूप क्षीणमोहने पण होय' एवं लख्यं छे ते कोइ ग्रंथथी मळे नहीं. आश्रवछाया कहेतां आश्रव ज आवे ते तो अगर्हणीय तुमारे मते भावपाप छे तेनी सत्ता क्षीणमोहने कहेतां घणुं ज विरुद्ध दीसे. ५७ ___'मोहनीय कर्मना उदयथी भावाश्रव परिणाम होय तेनी सत्ताथी द्रव्याश्रव परिणाम होय' एवं कहे छे ते न घटे, जे माटे एम कहेतां द्रव्यपरिग्रह पण धर्मोपकरणरूप केवळीने न जोईए. ५८ एणे ज करी उदित चारित्रमोहनीय असंयतिने भावाश्रवकारण प्रमत्तसंयतने पण सत्तावर्ति चारित्रमोहनीय द्रव्याश्रवनुं कारण तेमां अयतना सहित रागद्वेष ज प्रमाद गणीए तेथी प्रमत्तसंयत लगे द्रव्याश्रव होय अने अप्रमत्तने मोहनीय अनाभोगथी ते होय' ईत्यादिक कल्पना पण निषेधी जाणवी, जे माटे अप्रमत्तने द्रव्यपरिग्रहने ठामे ए युक्ति न मले तथा चारित्रमोहनीय सर्वने उदयथी भावाश्रव कहीए तो ४ गुणठाणादिक न घटे. केटलाकनो उदय लीजे तो ते यतिने पण छे. त्रण कषायनी उदयसत्तानी मेले भावाश्रव, द्रव्याश्रवनो परिणाम कहीए तो तेने क्षये छद्मस्थने पण द्रव्याश्रव न होवो जोईए तथा प्रमादे भावाश्रव कह्यो छे इत्यादिक न घटे. ५९. 'अयतनया चरन् प्रमादानाभोगाम्यां प्राणिभूतानि हिनस्ति' एवं दशवैकालिकसूत्रनी वृत्तिमा कयुं छे ते माटे प्रमाद-अनाभोग विना केवलीने द्रव्यहिंसा न होय' एवी मूळ युक्ति कहे छे तेह ज खोटी, जे माटे अवश्यभावी हिंसाना ए कारण न कह्या, केवळ अयतनाने उद्देशे ए कारण कह्यां, सघळे ए हेतु लीजे तो आकुट्टिकादिक भेद न मिले. ६० ___ 'केवळीने द्रव्यहिंसा होय ते सर्व प्रकार जाणतां हिंसानुबंधी रौद्र ध्यान होय' एवं कहे छे ते खोटुं, जे माटे एम कहेतां द्रव्यपरिग्रह छ तेहना सर्व प्रकार जाणतां संरक्षणानुबंधी रौद्रध्यान पण न वायुं जाय. ६१ प्रमत्तसंयत शुभयोगनी अपेक्षाए अनारंभी, अशुभयोगनी अपेक्षाए आरंभी, भगवत्तीसूत्रमा कह्या छे, त्यां 'शुभयोग ते उपयोगे क्रिया, अशुभयोग ते अनुपयोगे' एवं वृत्तिमा कयुं छे ते उवेखी अशुभयोग अपवादे कहे छे ते प्रगट विरुद्ध, जे माटे जाणी मृषावाद मायावट्टि[त्ति]या क्रिया भणी अप्रमत्तने पण प्रकट जणाय छे तथा अपवादे पण शास्त्ररीतिए बृहत्कल्पादिके शुद्धता ज कही छे तो अशुभयोग केम कहीए ? ६२ _ 'आरंभिकी क्रिया ६ गुणठाणे सदा होय' एवं लख्युं छे ते न घटे, जे माटे अन्यतर Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002640
Book TitlePrachin Madhyakalin Sahitya Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayant Kothari
PublisherL D Indology Ahmedabad
Publication Year2001
Total Pages762
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size11 MB
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