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धर्मसमुद्रकृत शकुंतला रास
जोउ जोउ रे कर्मकलंक, नवि छूटई राय न रंक; धिग् धिग् रे भवपातकपंक, मनि थाइ सतीय ससंक. आंचली. ७० चित्ति चमकइ परषद जाण, माय, दाखउ ते अहिनाण; जे थकी पतीजइ नाथ, तव साम्डं जोइ हाथ. जोउ० ७१ अंगुलीय न देखइ मुद्रा, कुद्रावइ आवइ तंद्रा; मनि पईठी मोटी संक, हूओ सवि परि विहि वंक. जोउ० ७२ नवि जाणइ ते किह पाडी, नरवर तिम मागइ ताडी; स्यउ उत्तर अबला आपइ, तव कुडकपट सहू थापइ. जोउ० ७३ हिव हसि हसि जंपइ राय, जोउ जोउ रे ए अन्याय; किम धवपणइ धीर, कुण सील सुलाज सरीर. जोउ. ७४ सवि तर्जइ सभा सभूप, रे तापस पापसरूप; असती लेइ आश्रमि जाउ, अम्ह थकी अदृष्टई थाउं. जोउ० ७५ मुनि मेइणि-पीठ निहाली, मनि वाली[वली] दोस संभाली; वन भणीय भरइ जिम पाय, सती आवई पूठि विछाय. जोउ० ७६ आक्रोसइ क्रोधई डारी, ऋषिपति विषवेलि वधारी; कुल-सील-कलंक प्रकासइ, अम्ह साथि म आविस दासिइ.
जोउ. इम तरजी वरजी बाल, तपसी पुहता ततकाल; सा सुंदर पाछी आवइ, तव भूपति वेगि वरावइ[वलावइ ?].
जोउ. ७८ रे नीलजि लाज ऊवेखी, घट पाप भराइ देखी; स्युं आवइ आघी धाइ, इण वातइ किसीय सगाइ. जोउ० ७९
ढाळ ८: सींधूआ इम सुणीय वयण जिम वज्रघात, धडहडीय द्रसक्कई धरणिपात; वली थई सचेतन वायजोगि, निरधारी विलवइ बहूय सोगि. ८० रे देव किसी परि एह किद्ध, सघला दुह सवि परि आज दिद्ध; स्यां कीधां परभवियां रे पाप, जे उदयु इणि भवि एह व्याप. ८१ कइ मोडी तरूअर तणीय डाल, कइ फोडी सरवर सजल पालि; कइ दीधी विण अपराध गाल, लीधा फल कोमल कई अकाल. ८२ विछोहउ कीधउ माय-बाल, तप खंड्या मंड्या कूड-जाल; संताप्या तपसी कइ दयाल, कई करतां भोजन हाँ थाल. ८३
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